सोमवार, 28 सितंबर 2009

साँकल रहे हैँ

नाग अस्तीनोँ के अन्दर पल रहे हैँ ।
मूँग छाती पर हमारी दल रहे हैँ ।
अब उन्हीँ लोगोँ से है ख़तरा हमेँ तो ,
जो हमारे द्वार की साँकल रहे हैँ ।
प्राणवायु बाँटते थे दूसरोँ को
हम कभी इस गाँव के पीपल रहे हैँ ।
हर क़दम की ताल को पहचानते हैँ ,
वो तुम्हारे पाँव की पायल रहे हैँ ।
गोद मेँ सूरज छिपाकर भी जो बरसेँ ,
इस तरह के लोग ही बादल रहे हैँ ।
भीड़ का हिस्सा नहीँ अगुआ बने हैँ ,
थे अकेले ही अकेले चल रहे हैँ ।
सूर्य बनकर उम्र भर बाँटा उजाला ,
डूबने का वक्त है तो ढल रहे हैँ ।

शनिवार, 26 सितंबर 2009

वय: सन्धि के बन्धन

लगे टूटने धीरे - धीरे वय: सन्धि के बन्धन ॥
मुखर हो उठे मन के सारे दबे हुए संवेदन ॥
आँखेँ बुनने लगीँ आजकल सपने रंग रँगीले ।
और हृदय वीणा के तन्तु होने लगे हठीले ।
धड़कन - धड़कन पूछ रही है कैसे करूँ निवेदन ॥
देती है जब मन्द झकोरे शीतल सी पुरवाई ।
अलसाई कलियाँ लेती हैँ धीरे से अँगड़ाई ।
टहनी - टहनी मचल रही है करने को आलिँगन ॥
सोती हुई झील के अन्तर मेँ जागा कौतूहल ।
नन्ही सी कंकरिया कर गई कितनी गहरी हलचल ।
डूब गईँ शर्मीली लहरेँ ले कूलोँ का चुम्बन ॥
बार - बार नयनोँ के आगे आए चाँद सलोना ।
मीठा सा उलाहना देकर रूठे कोई खिलौना ।
थोड़ी सी मनुहार और फिर सौ - सौ बार समर्पण ॥

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

मन की गाँठेँ खोलेँ

पर उपदेश कुशल बहुतेरे अपना हृदय टटोलेँ ॥
औरोँ के अवगुण देखेँ , पर अपनी चादर धो लेँ ॥
कवि तो एक मनीषी होता , शब्द , अर्थ का ज्ञाता ,
स्वयं प्रेरणा बनकर वह दुनिया को राह दिखाता ।
हम कवि हैँ , यह याद रखेँ और सोच समझकर बोलेँ ॥ हल्की बातेँ ही कविता का विषय बनेँ , अनुचित है ।
शाश्वत रचनाएँ लिखना ही कवि के लिए उचित है ।
विस्तृत गगन कल्पना का है, दूर - दूर तक डोलेँ ॥
अपनी लघुता को स्वीकारेँ , यह साहस दिखलाएँ ।
अहं भाव को तजकर ही , कुछ सीखेँ या सिखलाएँ ।
निज कमियोँ को कभी दूसरोँ के ऊपर न ढोलेँ ॥
जग जाहिर है , ढोल दूर के होते बड़े सुहाने ।
पास अगर आ जाएँ तो लगता है मारेँ ताने ।
साहित्यिक रस की धारा मेँ कटुता का विष घोलेँ ॥
स्वार्थ लिप्त व्यवहार नेह की नौका सदा डुबोते ।
श्रद्धा , त्याग , समर्पण ही पर्याय प्रेम के होते ।
या तो उनको मीत बना लेँ , या फिर उनके हो लेँ ॥
कवि होना है कृपा राम की , यह अनुभूति हमारी ।
बनते नहीँ , सदा पैदा होते हैँ क़लम पुजारी ।
बरसे बारह मास यहाँ रस , तन - मन सहज भिँगो लेँ ॥
सच्ची कविता निसृत होगी उस दिन अन्तर्मन से ।
पर दु:ख कातर होकर जिस दिन आँसू बहेँ नयन से ।
उन्हीँ आँसुओँ की स्याही मेँ अपनी क़लम डुबो लेँ ॥
प्रेम पगा धागा टूटे तो जुड़ना ही मुश्किल है ।
अरे खिलौना मिट्टी का है , दिल तो आख़िर दिल है ।
करना कठिन , सरल है कहना-मन की गाँठेँ खोलेँ ॥

सोमवार, 21 सितंबर 2009

किधर जाएँगे

दिन ग़रीबी के सही हँस के गुज़र जाएँगे ।
ख़्वाब महलोँ के देखेँगे तो मर जाएँगे ।
पाँव तहज़ीब से रखना मेरे बगीचे मेँ ,
फूल नाज़ुक हैँ , तेरे डर से बिखर जाएँगे ।
हर क़दम पे हमेँ धोखा ही मिला है उनसे ,
फिर भी उम्मीद है हमको कि सुधर जाएँगे ।
निकल पड़े हैँ कड़ी धूप मेँ साया पाने ,
छाँव मिल जाएगी हमको तो ठहर जाएँगे ।
अभी निग़ाह मेँ सबकी ज़नाब ऊपर हैँ ,
मैँ हक़ीक़त जो बता दूँ तो उतर जाएँगे ।
तू लक़ीरेँ तेरे हाथोँ की नजूमी को दिखा ,
पूछ ले कब तलक़ दिन अपने सँवर जाएँगे । आपके आसपास हम तो रहेँगे हरदम ,
आपसे दूर भला और किधर जाएँगे ।
आपसे

शनिवार, 19 सितंबर 2009

विचारोँ मेँ

कुछ बातेँ ऐसी होती हैँ जो की जाएँ इशारोँ मेँ ।
यह ख़ूबी पाई जाती है बस कुछ ही फ़नकारोँ मेँ ।
क़ागज और क़लम से अपना रिश्ता कुछ - कुछ ऐसा है ,
जैसा रिश्ता है सदियोँ से डोली और कहारोँ मेँ ।
आँखेँ शर्मशार हैँ अपनी , लज्जा से सिर झुका हुआ ,
जब से देखा है गीतोँ को बिकते हुए बजारोँ मेँ ।
पीछे से कुछ ख़ास आदमी अपना हिस्सा ले भागे ,
लोग लगे हैँ उम्मीदोँ की कितनी बड़ी क़तारोँ मेँ ।
सबसे पहले इस दुनिया को कौन मिटाएगा देखेँ ,
होड़ लगी है आसपास के परमाणु हथियारोँ मेँ ।
जिनको नहीँ भरोसा अपनी मेहनत , अपने बाज़ू पर ,
गिनती होती है उन सबकी मजबूरोँ , लाचारोँ मेँ ।
साथ अग़र मिल जाए तुम्हारा फिर क्या फ़िक्र ज़माने की ,
ख़ूब लगेगा फिर मेरा दिल उजड़े हुए दयारोँ मेँ ।
शायद पूरब के खेतोँ मेँ बरसा है पहला पानी ,
मिट्टी की सोँधी सी ख़ुशबू आने लगी बयारोँ मेँ ।
हर पत्थरदिल को पिघला दे ऐसी ताक़त होती है ,
सावन की ठण्डी - ठण्डी सी मस्ती भरी फुहारोँ मेँ ।
मेँढक बनकर किसी कुएँ मेँ कब तक गोता खाओगे ?
कुछ तो परिवर्तन ले आओ दक़ियानूस विचारोँ मेँ ।

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

होँगे

ख़ूने दिल से जो मेरे आपने बाले होँगे ।
उन चिराग़ोँ से नशेमन मेँ उजाले होँगे ।
दिल मेँ तूफान मग़र होँटोँ पे जुंबिश न हुई ,
हमने कैसे यहाँ अरमान निकाले होँगे ।
तेरे दीदार की हसरत मेँ तो ये भी होगा ,
एक दिन हम किसी क़ातिल के हवाले होँगे ।
यक़ीन कर तो लिया था मग़र न ये जाना ,
उजले कपड़ोँ मेँ छुपे दिल बड़े काले होँगे ।
मंज़िलेँ जब मेरी आँखोँ के सामने होँगी ,
राह पुरख़ार , मेरे पाँव मेँ छाले होँगे ।
जब भी आएगी क़यामत की घड़ी दुनिया मेँ ,
ज़िन्दग़ी हम भी तेरे चाहने वाले होँगे ।
दास्ताँ अपनी सुनाऊँ तो मेरा दावा है ,
छलके - छलके तेरी आँखोँ के पियाले होँगे ।
तूने ख़त और क़िताबत के लिए ही शायद ,
ये कबूतर बड़े अरमान से पाले होँगे ।

सोमवार, 14 सितंबर 2009

हो जाएगा

दर्द जिस दिन ज़िन्दगी का आसरा हो जाएगा ।
आदमी उस दिन न जाने क्या से क्या हो जाएगा ।
दर्द का हद से गुज़रना , कह गए ग़ालिब 'दवा' ,
दर्द कब गुज़रेगा हद से ? कब दवा हो जाएगा ।
कौन से धोखे मेँ बैठे हैँ हमारे रहनुमा ,
जाग जाएँ वरना कुछ अच्छा बुरा हो जाएगा ।
आग और बारूद मेँ है बस जरा सा फ़ासला ,
मेल होते ही हिरन सारा नशा हो जाएगा ।
आदमी की भूख वादोँ से नहीँ मिट पाएगी ,
ग़र निभाए तो ग़रीबोँ का भला हो जाएगा ।
एक ठोकर की ज़रूरत है ज़माने के लिए ,
देख लेना तू ज़माने का ख़ुदा हो जाएगा ।

शनिवार, 12 सितंबर 2009

आएँगे मेहमान

नयनोँ मेँ सपने तिर आए ,
अधरोँ पर आई मुस्कान ॥
कली - कली खिल उठी हृदय की ,
और उमंगेँ हुईँ जवान ॥
ख़ुशबू सी घुल गई हवा मेँ ,
मादक मौसम आया ।
दूर कहीँ गूँजी शहनाई ,
अंग - अंग बौराया ।
ख़ुशियाँ लिपट गईँ आँचल से ,
साँसोँ मेँ उमड़ा तूफान ॥
मन की सोन चिरैया उड़कर ,
बादल को छू आई ।
शरमा कर गौरैया देखे ,
पानी मेँ परछाई ।
सुध - बुध भूल गई दीवानी ,
प्रीत चढ़ी परवान ॥
प्यास निगोड़ी घिर - घिर आए ,
विकल पपीहा तरसे ।
चोँच उठाकर तके गगन को ,
शायद स्वाती बरसे ।
पल - पल हँसे ,
रोए पल - पल मेँ ,
हो जाए हैरान ॥
दरवाजे पर दस्तक देकर ,
पुरवैया उड़ जाए ।
आँगन मेँ तुलसी का बिरवा ,
गीत ख़ुशी के गाए ।
फिर मुँडेर पर कागा बोले ,
आएँगे मेहमान ॥

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

नवगीत

कल सचमुच यदि तुम आ जाते ॥
जी भरकर हँसते बतियाते ॥
भूल कुटिलतम आघातोँ को ।
जीवन के झंझावातोँ को । सुख से जो हम दोनोँ करते ,
सुनकर प्रेम पगी बातोँ को ।
प्रकृति विहँसती और गगन के ,
चमकीले तारे मुस्काते ॥
महुआ औ टेसू फूले थे ।
मस्ती मेँ सुध - बुध भूले थे ।
सपनोँ मेँ गलबहियाँ देकर ,
हम झूले थे ,
तुम झूले थे ।
करने को अभिसार ,
रूठते यदि हमसे
तो तुम्हेँ मनाते ॥
बचकर गर्मी की दुपहर से ।
गुपचुप - गुपचुप
इधर - उधर से ।
आँख बचाकर दुनिया भर की ,
ले जाते फिर तुम्हेँ नगर से ।
दूर गाँव की अमराई मेँ ,
बैठ प्रीत का पाठ पढ़ाते ॥

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

कहाँ है ?

हो गई गुम रोशनी आख़िर कहाँ है ?
तीरग़ी की ओर बढ़ता कारवाँ है ।
देखिए ग़ुलशन उजाड़ा जा रहा है ,
चैन से सोया हुआ क्योँ बागवाँ है ?
ताज़ की तामीर कैसे हो सकेगी ?
अब नहीँ मुमताज़ औ न शा'जहाँ है ।
दर्द , आँसू , आह , ग़म , ग़ुरबत कभी ,
मुफ़लिसी की एक लम्बी दास्ताँ है ।
किस तरह हमको निकालोगे वहाँ से ,
आपके दिल मेँ हमारा भी मकाँ है ।
आप - हम जैसे कई आए गए हैँ ,
याद रखना ये किराये का मकाँ है ।
उम्र बेशक़ हो गई होगी ज़ियादा ,
दर असल दिल आज भी लगता जवाँ है ।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

चुरा लिया

पानी , हवा , जमीन और बादल चुरा लिया ।
इंसान की वहशत ने ये जंगल चुरा लिया ।
चौपाल सूनी हो गईँ , अमराइयाँ उदास ,
किसने हमारे गाँव का पीपल चुरा लिया ।
परफ्यूम का चलन बढ़ा इत्रोँ के दिन लदे ,
महके हुए कन्नौज का सन्दल चुरा लिया ।
बिन्दी गई , कंगन गए , मेँहदी कभी कभार ,
फैशन चली तो आँख से काजल चुरा लिया ।
उतरेगी नज़र किस तरह दुर्लभ हैँ राई - नोन ,
महँगाई ने ममता भरा आँचल चुरा लिया ।
लोरी नहीँ , परियोँ की कहानी नहीँ , टी. वी. ,
गाँवोँ से इसने आल्हा औ ऊदल चुरा लिया ।

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

जाली नोट

इन दिनोँ नकली नोटोँ के बाजार मेँ प्रचलन की मीडिया मेँ बड़ी चर्चा हो रही है । वक्तव्य दिए जा रहे हैँ , लेख लिखे जा रहे , स्यापा किया जा रहा है कि पड़ौसी देश हमारी अर्थ व्यवस्था को हानि पहुँचाने की कोशिश कर रहा है । दाऊद इब्राहिम जाली नोटोँ की फैक्ट्री चला रहा है । नकली नोटोँ की खेप नेपाल और बँगलादेश के रास्ते भारत भेज रहा है । वाह क्या बात है ! कितनी जिम्मेदारी भरी बातेँ करने वाली है हमारी सरकार ! जब सब कुछ आपको मालूम है तब किस बात की प्रतीक्षा की जा रही है ? ये सटीक निशाने पर मार करने वाली तमाम मिसाइलेँ क्या सिर्फ 26 जनवरी की परेड की शोभा बढ़ाने के लिए बनाई गई हैँ । आए दिन किसी न किसी नई मिसाइल के चाँदीपुर से सफल परीक्षण का दावा किया जाता है । जंगल मेँ मोर नाचा किसने देखा ? किसी दिन किसी मिसाइल को उसके वास्तविक निशाने पर भी तो छोड़कर देखिए । अगर निशाना अचूक हुआ तो देश की जनता और दुनिया भी देख लेगी । इससे दुनिया मेँ भारत की साख और दबदबा क़ायम हो जाएगा । वर्षोँ से हमारी सरकार पाकिस्तान को दस्तावेजी सबूत दे रही है कि दाऊद इब्राहिम कराँची मेँ बैठकर भारत विरोधी गतिविधियाँ चला रहा है । मगर आपकी सुनता कौन है ? आपकी औक़ात उसके आगे गलियोँ दुम हिलाते घूमने वाले आवारा कुत्ते से अधिक और कुछ नहीँ है । लगता है हम भी अपनी ऐसी ही औक़ात से संतुष्ट और प्रसन्न हैँ । यदि केवल एक मिसाइल दाऊद के घर को निशाना बनाकर छोड़ दी जाए तो फिर कोई सबूत देने की जरूरत नहीँ पड़ेगी । लेकिन जो सरकार सीधे सीधे पाकिस्तान का नाम लेने की जगह उसे ' एक पड़ौसी देश ' कहती हो उस सरकार से आप यदि मिसाइल दाग़ने की उम्मीद करेँ तो यह उसकी अन्तर्राष्ट्रीय छबि के खिलाफ़ होगा । यही कारण है कि देश के अन्दर भी अब कई लोगोँ ने नकली नोटोँ की छोटी मोटी फैक्ट्रियाँ डाल ली हैँ । हमारी टिमरनी मेँ भी कुछ वर्ष पूर्व ऐसी ही एक छोटी फैक्ट्री डाली गई थी लेकिन कुशल संचालन के अभाव मेँ उस फैक्ट्री ने शुरुआत मेँ ही दम तोड़ दिया । कहा जा रहा है कि हमारी मुद्रा का फार्मूला शायद चुरा लिया गया है । क्या कहा जाए ऐसे रिज़र्व बैँक के बारे मेँ । अब तो कई जगह ए टी एम से भी जाली नोट निकलने की खबरेँ आ रही हैँ । कौन कहेगा कि इस देश को कोई जिम्मेदार सरकार चला रही है ? कहीँ किसी दिन यदि आप ऐसी ख़बर या विज्ञापन पढ़ेँ तो आश्चर्य मत करना कि भारत देश को चलाने के लिए देशी और विदेशी ठेकेदारोँ से मुहरबन्द निविदाएँ आमंत्रित की जाती हैँ । धन्य है कि फिर भी सारे जहाँ अच्छा हिन्दुस्तान हमारा है । अस्तु ।

सोमवार, 7 सितंबर 2009

पत्थर नहीँ हूँ मैँ

ज़र्रा हूँ कोई क़ीमती पत्थर नहीँ हूँ मैँ ।
कुछ भी हूँ मग़र तेरे बराबर नहीँ हूँ मैँ ।
मुफ़लिस हूँ मुक़द्दर का सिक़न्दर नहीँ हूँ मैँ ।
वाक़ई किसी फ़कीर से क़मतर नहीँ हूँ मैँ ।
मैली बहुत है ज़िन्दग़ी गहरे लगे हैँ दाग़ ,
ओढ़ी हुई क़बीर चादर नहीँ हूँ मैँ ।
गिर जाऊँगा मुझको न फ़लक़ पर बिठाओ तुम ,
नाचीज़ हूँ पहुँचा हुआ शायर नहीँ हूँ मैँ ।
जो भी जरूरी बात है बस आज ही कर लो ,
दिन बीतने के बाद मयस्सर नहीँ हूँ मैँ ।
आओ जरा क़रीब ग़िरेबाँ मेँ झाँक लो ,
सीने मेँ दिल है मोम का पत्थर नहीँ हूँ मैँ ।

रविवार, 6 सितंबर 2009

बड़े सुभीते हैँ

आह भरते हैँ अश्क़ पीते हैँ ।
गर्दिशो मुफ़लिसी मेँ जीते हैँ ।
क़ैद चिड़ियाघरोँ मेँ हैँ लेकिन ,
हम तो जंगल के शेर चीते हैँ ।
हर कोई कैँचियाँ चलाता है ,
जैसे उदघाटनोँ के फीते हैँ ।
मौत बेहतर है ज़िन्दगी से जहाँ ,
ऐसे हालात मेँ वो जीते हैँ ।
फ़न है , अल्फ़ाज़ हैँ , तसव्वुर है ,
फिर क्योँ अपने नसीब रीते हैँ ।
ढाँकने के लिए ग़रीबी को ,
अपने चिथड़ोँ रोज सीते हैँ ।
उनके तलवोँ को चाटना सीखो ,
इस हुनर मेँ बड़े सुभीते हैँ ।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

गुलाब जैसा था

नक़ाब मेँ था मग़र माहताब जैसा था ।
मुझे है याद वो चेहरा गुलाब जैसा था ।
आँख मिलते ही कई लोग होश खो बैठे ,
नशा निग़ाह मेँ बिलकुल शराब जैसा था ।
मुस्कराना यदि ख़ुशबू बिखेर देता था ,
तो उसका रूठना फिर इन्क़लाब जैसा था ।
वो किसी बात पर गुस्से से तमतमाए तो ,
मिजाज चाँद का भी आफ़ताब जैसा था ।
सवाल इस क़दर दागे थे उनकी चुप्पी ने ,
हमारा हाल किसी लाजवाब जैसा था ।
इत्र जब लाश को लोगोँ ने लगाया तो लगा ,
ये बदनसीब अवध के नवाब जैसा था ।
मेरे क़रीब जो आया उसी ने पहचाना ,
मेरा वज़ूद खुली हुई क़िताब जैसा था ।

बुधवार, 2 सितंबर 2009

नहीँ रहे

दिल मेँ किसी के जो कभी दाख़िल नहीँ रहे ।
चैन औ सुकून भी उन्हेँ हासिल नहीँ रहे ।
करते हैँ खून भी मग़र सर पे नहीँ लेते ,
पहले की तरह आज के क़ातिल नहीँ रहे ।
सेहरा हमेशा जीत का उनके ही सिर बँधा ,
दुश्मन की हरक़तोँ से जो ग़ाफ़िल नहीँ रहे ।
तूफान की लहरोँ मेँ कटी ज़िन्दगी तमाम ,
अपने नसीब मेँ कभी साहिल नहीँ रहे ।
नफ़रत से , हिक़ारत से ही देखा गया उन्हेँ ,
कुछ लोग कभी प्यार के क़ाबिल नहीँ रहे ।
लगती हैँ ठोकरेँ , कभी पड़ता है भटकना ,
इंसान के आगे अग़र मंज़िल नहीँ रहे ।
कल तक जो इन्क़लाब के हामी थे , क्या हुआ ?
क्योँ आज वही भीड़ मेँ शामिल नहीँ रहे ।
कैसे , कहाँ , कब , कौन , क्या , कितना या किसलिए ,
ऐसे सवाल आजकल मुश्क़िल नहीँ रहे ।
इतना जलील दोस्तोँ ने कर दिया हमेँ ,
दुश्मन भी कभी इस क़दर जाहिल नहीँ रहे ।
बस मेँ नहीँ है आजकल अपने , ये क्या हुआ ?
शायद हमारे पास अब ये दिल नहीँ रहे ।
जो भी मिले हैँ आज तक आधे या अधूरे ,
बरसोँ से यहाँ लोग मुक़म्मिल नहीँ रहे ।