बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

क्या खोया पाया

बड़े ही प्यार से हमने सभी को समझाया ।
अमन का फ़लसफ़ा लेकिन उन्हेँ नहीँ भाया ।
ये सियासत है एक कोठरी काजल वाली ,
कौन बेदाग़ निकलकर भला बाहर आया ।
जमीन बेचकर खाई हैँ रोटियाँ हमने ,
ज़मीर बेचकर हलवा कभी नहीँ खाया ।
कोई सूरज , सुना है रोशनी लुटाता है ,
हमारी तीरग़ी मेँ आज तक नहीँ आया ।
मैँ तो आकाश मेँ उड़ता हुआ परिन्दा हूँ ,
क़फ़स हाथोँ मेँ लिए कौन मेरे घर आया ।
शाम ढलने को है आओ ज़रा हिसाब करेँ ,
क्या किया , क्या न किया और क्या खोया - पाया ।

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

होता है

रस्ते मेँ पत्थर होता है ।
पाँव खून से तर होता है ।
आला अफ़सर घर होते हैँ ,
घर मेँ ही दफ़्तर होता है ।
चोर भले ही कोई भी हो ,
शक़ तो नौकर पर होता है ।
जिसे समझते घटिया वो ही,
अच्छोँ से बेहतर होता है ।
दान , धर्म मेँ सबसे आगे ,
डाकू या तस्कर होता है ।
रबड़ी और दूध से ज़्यादा ,
कुर्सी मेँ पावर होता है ।
घर मेँ नहीँ सुरक्षित हैँ हम ,
बाहर भी तो डर होता है ।

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

ज़माने लगेँगे

वतन की जो हालत
बताने लगेँगे ।
तो पत्थर भी आँसू
बहाने लगेँगे ।
कहीँ भीड़ मेँ
खो गई आदमीयत ,
उसे ढूँढने मेँ
ज़माने लगेँगे ।
अंधोँ के कंधोँ पे
बैठेँगे लँगड़े ,
किसी दिन तो चलकर
ठिकाने लगेँगे ।
अग़र हमने पहचानी
वोटोँ की क़ीमत ,
सभी अपने वादे
निभाने लगेँगे ।
ग़ज़ल मेँ अग़र जान
डाली है तूने ,
सभी लोग फिर
गुनगुनाने लगेँगे ।
[ यह ग़ज़ल मैँने कोई 30 साल पहले कही थी तब मैँ ग्वालियर मेँ था । कुछ गोष्ठियोँ मेँ मैँने इसे पढ़ा भी था । लगभग डेढ़ या दो वर्ष पहले दूरदर्शन पर एक गोष्ठी मेँ एक कवि ( नाम याद नहीँ आ रहा ) ने इस ग़ज़ल का मतला और पहला शेर बड़ी शान से सुना दिया । इस गोष्ठी का संचालन श्री सुरेश ' नीरव ' ( कादम्बिनी ) कर रहे थे । मैँ एक छोटे गाँव मेँ रहता हूँ और तब मेरे पास अपनी बात कहने के लिए यह साधन नहीँ था । मैँ अपनी रचना की चोरी का आरोप उन कवि महोदय पर लगाकर किसी विवाद को जन्म देना नहीँ चाहता पर अपनी बात कहने का मुझे पूरा हक़ है । उनका ईमान उन्हेँ मुबारक़ । हो सकता है कि यह महज़ एक इत्तिफ़ाक़ हो । उनके और मेरे भाव एवं शब्द मेल खा गए होँ । ख़ैर , बाक़ी सब मैँ आप जैसे सुधीजनोँ पर छोड़ता हूँ । मुझे उनसे कोई शिक़ायत नहीँ । ]

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

दीवाली होगी

मन के मरुथल मेँ
जिस दिन हरियाली होगी ।
उस दिन अपने घर मेँ भी दीवाली होगी ।
आशाओँ के दीपक जिस दिन जल जाएँगे ,
रात अमावस की फिर कैसे काली होगी ।

मौसम नहीँ रहा

ऐसा नहीँ कि ज़िन्दगी मेँ ग़म नहीँ रहा ।
दामन हमारा आँसुओँ से नम नहीँ रहा ।
हमने मुक़ाबला किया हँसते हुए सदा ,
वरना मुसीबतोँ का कहर कम नहीँ रहा ।
मिलने लगी है झूठ को इज्ज़त सभी जगह ,
सच बोलने का आजकल मौसम नहीँ रहा ।
मुँह मेँ जुबान है बहुत लम्बी तो क्या हुआ ,
इंसान की बातोँ मेँ कोई दम नहीँ रहा ।
ज़ख़्मोँ को दिल के दे सके राहत कभी - कभी ,
ऐसा किसी के पास भी मरहम नहीँ रहा ।
मैला अग़र अब हो गया गंगा का नीर तो ,
पहले की तरह आब - ए जमजम नहीँ रहा ।
कुछ हादसोँ मेँ लोग कई मर गए लेकिन ,
घर के पड़ोस मेँ कोई मातम नहीँ रहा ।

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

शुभ दीपावली

लोक - मंगल , चेतना ,
नव - जागरण ।
हो प्रकाशित विश्व का
अन्त:करण ।
माँगता हूँ मैँ
ज़माने के लिए ,
एक दीपक ,
एक उजली सी किरण ।
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

साम्राज्यवादी चीन

चीन दुनिया को दिखाने के लिए तो साम्यवादी है पर वास्तव मेँ वह घोर साम्राज्यवादी है । तिब्बत को हड़पने तथा भारत की हजारोँ वर्गमील भूमि पर कब्जा करने के बाद अब उसकी नीयत लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश को हथियाने की है । इसके लिए उसने पहले तो लद्दाख की हवाई और स्थल सीमाओँ का उल्लंघन कर घुसपैठ की तथा वहाँ पत्थरोँ पर जगह - जगह लाल रंग से चीन लिख दिया और बाद मेँ प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिँह की अरुणाचल प्रदेश यात्रा पर बेशर्मी से खुल्लमखुल्ला ऐतराज किया । और विदेशी मूल के इशारोँ पर कठपुतली बना हमारा स्वाभिमानशून्य , रीढ़विहीन नेतृत्व हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा । हमारे विदेश मंत्री एस.एम.कृष्णा ने बकरी की तरह मिमियाते हुए मरियल आवाज़ मेँ कड़ा विरोध व्यक्त करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली । पर सचमुच मेँ आम देशभक्त नागरिक का आहत मन इससे संतुष्ट नहीँ हुआ । वास्तव मेँ इस अवसर पर राष्ट्रीय स्वाभिमान और दृढ़ता का परिचय देते हुए सिँह गर्जना की आवश्यकता थी । भारत सरकार को चाहिए था कि वह ईँट का जवाब पत्थर से देते हुए अपनी हड़पी हुई जमीन को छुड़ाने के लिए आवश्यक कार्यवाही का बेखौफ़ ऐलान करती , चीन की नीयत को दुनिया के सामने उजागर करती , तिब्बत की आजादी के लिए विश्व समुदाय के सामने भारत का स्पष्ट पक्ष रखती , कैलाश मानसरोवर पर भारत के जन्मसिद्ध अधिकार का दावा करते हुए उनकी मुक्ति के लिए प्रयास शुरू करने की घोषणा करती और चीन की आपत्तियोँ को खारिज कर इसे भारत की एकता , अखण्डता और सम्प्रभुता पर प्रहार बताते हुए उसकी हरकतोँ को भड़काने वाली कार्यवाही कहती । मगर रमेश , तू ये अपेक्षाएँ आख़िर किससे कर रहा है ? वहाँ तेरी कौन सुनने वाला है ? किसी के कान पर जूँ रेँगने वाली नहीँ । क्योँ तू अपना समय बर्बाद कर रहा है । बन्द कर यह लिखना लिखाना । ...
लेकिन विचारोँ के बीज वातावरण मेँ बोए जाते हैँ और अनुकूल परिस्थियोँ मेँ वे पल्लवित और पुष्पित होकर मनोनुकूल फल प्रदान करते हैँ । इसलिए तू अपने अन्त:करण मेँ उठने वाले विचारोँ को वातावरण मेँ बोए जा बिना इस बात की परवाह किए कि उन विचारोँ को भला कौन पढ़ेगा ? बात आगे बढ़ाता हूँ । तब मैँ बच्चा था पर मुझे अच्छी तरह याद है । राष्ट्रीय स्वाभिमान से ओतप्रोत वातावरण हमारे संयुक्त परिवार की विशेषता थी । राष्ट्रीय मुद्दोँ पर चर्चाएँ हुआ करती थीँ । मैँ उन चर्चाओँ को रुचि लेकर बड़े ध्यान से सुना करता था । चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई भारत आए थे । पं. जवाहरलाल नेहरू ने उनके सम्मान मेँ एक स्वागत समारोह का आयोजन किया था । इस कार्यक्रम मेँ अर्धनग्न लड़कियोँ के द्वारा लगभग अश्लील कहा जा सकने योग्य एक बेहूदा नृत्य प्रस्तुत किया गया था । उस समय सिनेमा टॉकीज़ोँ मेँ फिल्म शुरू होने से पहले भारत सरकार के दृश्य एवं प्रचार निदेशालय द्वारा राष्ट्रीय महत्व के आयोजनोँ की न्यूज़ रील दिखाई जाती थी । टिमरनी की टॉकीज़ मेँ मैँने उक्त कार्यक्रम की न्यूज़ रील देखी है । इस भौँडे नृत्य को देखकर तब चाऊ एन लाई ने अवश्य ही यह सोचा होगा कि इस देश के राष्ट्रीय नेताओँ की रुचि राष्ट्र निर्माण की बजाए राग रंग मेँ है । शायद यही वजह थी कि चीनी - हिन्दी , भाई - भाई के नारे लगाने वाले चीन ने उसी भाई की पीठ मेँ छुरा घोँपते हुए उस पर एक अनावश्यक युद्ध थोपकर हजारोँ वर्गमील भूमि हथिया ली । आश्चर्य है कि परमाणु हथियारोँ से सम्पन्न देश को दबाने की कोशिशेँ आखिर कोई देश कैसे कर सकता है ? क्या हमारी अग्नि और पृथ्वी मिसाइलेँ केवल शोभा की सुपारी हैँ ? यदि इन सबका उपयोग हमारे राष्ट्र की एकता , अखण्डता और सम्प्रभुता की रक्षा करने के लिए नहीँ हुआ तो फिर इनके होने का आखिर क्या अर्थ है ? क्योँ नहीँ कोई देश हमारे इन अत्याधुनिक हथियारोँ से खौफ़ खाता ? क्या ये केवल अजायबघर की वस्तुएँ बनकर रह जाएँगी ? क्या इनका उपयोग केवल 26 जनवरी की परेड मेँ प्रदर्शन तक ही सीमित रह जाएगा ? शायद ये सब सच नहीँ हैँ । हमारे हथियार तो हर प्रकार से सक्षम हैँ परन्तु कमजोरी हमारे अक्षम नेतृत्व की है । उसमे दृढ़ इच्छाशक्ति का नि:तान्त अभाव है । हमारी विदेश नीति ढुलमुल और अस्पष्ट है । अब समय आ गया है जब कि हमेँ अपनी विदेश नीति मेँ राष्ट्रीय स्वाभिमान , सुरक्षा , सम्प्रभुता और अखण्डता को सर्वोच्च प्राथमिकता देना चाहिए । जबसे नेपाल मेँ राजनीतिक हालात बदले हैँ वहाँ भारत विरोधी गतिविधियोँ मेँ तेजी आ गई है । नेपाल के रास्ते नकली नोट भारत मेँ अर्थ व्यवस्था को छलनी कर रहे हैँ और सरकार आश्चर्यजनक चुप्पी के साथ हाथ पर हाथ धरे बैठी है । अब उसी नेपाल के चीन समर्थक प्रधान मंत्री माधव कुमार नेपाल ने चीन से आग्रह किया है कि वह तिब्बत की राजधानी ल्हासा से काठमाण्डू तक रेल मार्ग का निर्माण करे । वास्तव मेँ यह रेलमार्ग भविष्य मेँ भारत के लि खतरा बन सकता है इसलिए नेपाल के इस प्रस्ताव का पुरजोर विरोध होना चाहिए । दरअसल भारत चारोँ ओर से विरोधियोँ और दुश्मनोँ से घिर चुका है अत: हमेँ अपनी सुरक्षा को ध्यान मेँ रखते हुए अपनी कूटनीति मेँ आवश्यक बदलाव करना होगा । अपने परमाणु हथियारोँ और मिसाइलोँ का कूटनीतिक उपयोग करके पड़ोसी देशोँ पर अपनी धाक कायम करनी होगी , मिमियाने के स्थान पर अपनी भाषा मेँ परमाणु शक्ति सम्पन्नता का आभास कराना होगा तभी हम शान्ति से रह पाएँगे । ॥ भारत माता की जय ॥

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

नोबल पुरुस्कार

मेरी दृष्टि से वेँकटरामन चन्द्रशेखर को नोबल पुरुस्कार मिलना हम भारतीयोँ के लिए गर्व करने की बात कतई नहीँ लगती । क्या हम केवल इसलिए गर्व करेँ क्योँकि वह भारतीय मूल के हैँ ? यह बात गले नहीँ उतरती । दरअसल हमारे लिए तो यह शर्म की बात होनी चाहिए कि एक योग्य प्रतिभा को हम अपने देश मेँ रोक नहीँ सके । उन्हेँ देश मेँ ही अनुसंधान की आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध नहीँ करा सके । और जब अमेरिका जाकर उन्होँने अपनी प्रतिभा के झण्डे गाड़े तो हम अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनकर गर्व कर रहे हैँ । इसके पूर्व भी जिन भारतीय मूल के वैज्ञानिकोँ को नोबल पुरुस्कार मिला था उनके साथ भी यही परिस्थिति थी । दूसरी ओर अपनी मातृभूमि को छोड़कर अन्य देशोँ मेँ जाकर बसने और उन देशोँ के लिए उत्कृष्ट कार्य करने वाले निन्दा और धिक्कार के अधिकारी होकर कृतघ्न लोगोँ की श्रेणी मेँ ही रखे जाएँगे । वाल्मीकि रामायण मेँ भगवान राम ने लक्ष्मण से कहा था - " अपि स्वर्णमयी लंका , न मे लक्ष्मण रोचते । जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी । अस्तु ।

नोबल पुरुस्कार

मेरी दृष्टि से वेँकटरामन चन्द्रशेखर को नोबल पुरुस्कार मिलना हम भारतीयोँ के लिए गर्व करने की बात कतई नहीँ लगती । क्या हम केवल इसलिए गर्व करेँ क्योँकि वह भारतीय मूल के हैँ ? यह बात गले नहीँ उतरती । दरअसल हमारे लिए तो यह शर्म की बात होनी चाहिए कि एक योग्य प्रतिभा को हम अपने देश मेँ रोक नहीँ सके । उन्हेँ देश मेँ ही अनुसंधान की आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध नहीँ करा सके । और जब अमेरिका जाकर उन्होँने अपनी प्रतिभा के झण्डे गाड़े तो हम अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनकर गर्व कर रहे हैँ । इसके पूर्व भी जिन भारतीय मूल के वैज्ञानिकोँ को नोबल पुरुस्कार मिला था उनके साथ भी यही परिस्थिति थी । दूसरी ओर अपनी मातृभूमि को छोड़कर अन्य देशोँ मेँ जाकर बसने और उन देशोँ के लिए उत्कृष्ट कार्य करने वाले निन्दा और धिक्कार के अधिकारी होकर कृतघ्न लोगोँ की श्रेणी मेँ ही रखे जाएँगे । वाल्मीकि रामायण मेँ भगवान राम ने लक्ष्मण से कहा था - " अपि स्वर्णमयी लंका , न मे लक्ष्मण रोचते । जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी । अस्तु ।

शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

चाँदनी

पिछले कुछ दिनोँ से पीलिया रोग से पीड़ित हूँ । न जाने मैँने ऐसा क्या पी लिया था । ख़ैर... आज शरद पूर्णिमा है , लिहाज़ा कुछ तो कहना ही पड़ेगा ।
' चाँदनी '
है अँधेरोँ से बँधी तक़दीर जिनकी ।
चाँदनी उनके लिए
है चार दिन की ।
आज सिर्फ़ ग़ज़ल का मतला ही प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
इस मतले के रदीफ़ और क़ाफ़िए पर यदि आपका मन मचले तो आप भी ग़िरह लगाकर कुछ शेर अवश्य कहियेगा । सचमुच मुझे बहुत खुशी होगी आपके शेर पढ़कर । इरशाद ...