ऐसा नहीँ कि ज़िन्दगी मेँ ग़म नहीँ रहा ।
दामन हमारा आँसुओँ से नम नहीँ रहा ।
हमने मुक़ाबला किया हँसते हुए सदा ,
वरना मुसीबतोँ का कहर कम नहीँ रहा ।
मिलने लगी है झूठ को इज्ज़त सभी जगह ,
सच बोलने का आजकल मौसम नहीँ रहा ।
मुँह मेँ जुबान है बहुत लम्बी तो क्या हुआ ,
इंसान की बातोँ मेँ कोई दम नहीँ रहा ।
ज़ख़्मोँ को दिल के दे सके राहत कभी - कभी ,
ऐसा किसी के पास भी मरहम नहीँ रहा ।
मैला अग़र अब हो गया गंगा का नीर तो ,
पहले की तरह आब - ए जमजम नहीँ रहा ।
कुछ हादसोँ मेँ लोग कई मर गए लेकिन ,
घर के पड़ोस मेँ कोई मातम नहीँ रहा ।
शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009
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2 टिप्पणियां:
कुछ हादसोँ मेँ लोग कई मर गए लेकिन ,
घर के पड़ोस मेँ कोई मातम नहीँ रहा ।
aajkal aise halaat hote ja rahe hain
बहुत गहरे उतर गई रचना!
सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!
-समीर लाल ’समीर’
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