गुरुवार, 27 मई 2010

तिमिर हरणी - भाग - 6

एक लम्बे अन्तराल के बाद इस श्रृंखला का छठवाँ भाग प्रस्तुत कर रहा हूँ । पिछले भाग मेँ मैँने हंस कुमार जी की सहृदयता एवं अपने जमाने के सुप्रसिद्ध अभिनेता सोहराब मोदी के टिमरनी प्रवास का विस्तार से वर्णन किया था । इस भाग मेँ टिमरनी की नदी पर बने राधाबाई के पुल के निर्माण का रोचक इतिहास बताने का प्रयास करूँगा । सबसे पहले यह बताना समीचीन होगा कि आख़िर इस पुल को आम लोग राधाबाई का पुल और नदी को राधाबाई की नदी क्योँ कहते हैँ ?
बात थोड़ी ज्यादा पुरानी है । टिमरनी के तत्कालीन जागीरदार श्रीमन्त सरदार भुस्कुटे जी के परिवार मेँ एक अति धार्मिक विचारोँ की महिला थीँ जिनका नाम राधाबाई था । राधाबाई अपने पति की मृत्यु के बाद उनके शव के साथ सती हो गई थीँ । टिमरनी के सम्पन्न और कुलीन घरानोँ मेँ एक परम्परा होती थी कि उनके परिवार मेँ किसी की मृत्यु होने पर शव का अन्तिम संस्कार सार्वजनिक श्मशान मेँ न किया जाकर अपने खेत अथवा अपने मालिकाना हक़ की खाली पड़ी भूमि पर किया जाता था । आज भी यह परम्परा टिमरनी के कुछ परिवारोँ मेँ यथावत कायम है । भुस्कुटे परिवार मेँ भी ऐसी ही परम्परा थी । बाद मेँ स्वनामधन्य श्रद्धेय भाऊ साहब भुस्कुटे जी ने अपनी पूज्य माताजी की दाह क्रिया सार्वजनिक श्मशान ' मुक्तिधाम ' मेँ करके अपने परिवार की इस परम्परा को तोड़ दिया । परन्तु इस परम्परा के अनुसार ही राधाबाई के स्वर्गीय पति का दाह संस्कार टिमरनी की इसी नदी के किनारे किया गया था और राधाबाई सती का बाना पहन कर अपने पति के शव के साथ चिता पर बैठकर सती हो गई थीँ । बस तभी से टिमरनी का श्रद्धावान समाज इस नदी को राधाबाई की नदी कहकर सम्बोधित करने लगा और स्वाभाविक ही इस नदी पर बनने वाले पुल को भी राधाबाई के पुल की संज्ञा मिल गई । जिस स्थान पर राधाबाई सती हुई थीँ वहाँ पर आज भी एक समाधि बनी हुई है । पुल से पश्चिम की दिशा मेँ नदी के उत्तरी किनारे पर थोड़ा दूर हटकर यह समाधि झाड़ियोँ और घास फूस के झुरमुटोँ के बीच स्थित होने से आमतौर पर दृष्टिगोचर नहीँ होती है । यह समाधि उपेक्षा और रखरखाव के अभाव मेँ जीर्ण शीर्ण हो गई है लेकिन इसमेँ जड़े पत्थरोँ पर नक्काशी का बेजोड़ काम इसकी भव्यता और सुन्दरता का बखूबी बयान करते हैँ । नदी मेँ आने वाली बाढ़ और देखरेख की कमी के चलते इस ऐतिहासिक धरोहर के अनमोल पत्थर उखड़ कर इधर - उधर बिखर रहे हैँ जिसके कारण इस समाधि के अस्तित्व पर संकट छाया हुआ है । कुछ असामाजिक तत्वोँ ने भी इसे क्षति पहुँचाई है और इसके पत्थरोँ के चोरी होने का खतरा भी बना हुआ है । इसी समाधि के पास पत्थरोँ से पटा एक छोटा सा घाट भी था जिसे सती घाट कहते थे । अब तो इस सती घाट का केवल नाम ही शेष है । अलबत्ता इस घाट के अवशेष के रूप मेँ इक्का - दुक्का पत्थर इसके अतीत की कहानी अवश्य कह रहे हैँ । कभी सदाधारा रहने वाली यह छोटी सी नदी अब निराधारा हो चुकी है और इसके अस्तित्व पर भी संकट के बादल मँडरा रहे हैँ । इस नदी के उद्धार को लेकर इस श्रृंखला मेँ आगे कुछ लिखने का प्रयास जरूर करूँगा । यहाँ पर यह ऐतिहासिक तथ्य बताना भी उचित होगा कि इस नदी के पास वाले मैदान पर किसी जमाने मेँ राधाबाई की पुण्य स्मृति मेँ प्रतिवर्ष एक भव्य मेले का भी आयोजन होता था । आज भी टिमरनी मेँ कुछ पुरानी पीढ़ी के ऐसे लोग मौजूद हैँ जिन्होँने इस मेले का आनन्द उठाया है और रायझूलोँ का लुत्फ़ लिया है । बुज़ुर्ग़ बताते हैँ कि एक बार इस मेले मेँ भयंकर अग्निकाण्ड हो गया था जिसमेँ दूकानदारोँ को भारी आर्थिक हानि उठानी पड़ी थी । बस तभी से यह मेला बन्द हो गया ।
आइये ! अब राधाबाई के पुल के निर्माण की रोचक गाथा भी सुन लेँ । पिछले भाग मेँ मैँने लिखा था कि पुल बनने के पूर्व नदी की बाढ़ का पानी गाँव मेँ घुस जाया करता था । कई बार अतिवृष्टि से बाढ़ का पानी टिमरनी की गढ़ी के मुख्य द्वार तक भी आ जाया करता था । ऐसे मेँ बड़ी भयावह स्थिति उत्पन्न हो जाती थी । लोगोँ की इस परेशानी को समझते हुए हंस कुमार जी ने तत्कालीन अँग्रेज सरकार को नदी पर पुल बनाने की योजना सुझाई जिसे अँग्रेजी शासन ने तुरन्त स्वीकार कर लिया । ऐसा लगता है कि इस पुल के वास्तुकार भी स्वयं हंस कुमार जी ही थे क्योँकि राधास्वामी हाई स्कूल और इस पुल की बाह्य संरचना मेँ एक ही व्यक्ति की परिकल्पना अभिव्यक्त होती है । जो भी हो हंस कुमार जी के मार्गदर्शन मेँ जब पुल के निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ तो खम्भोँ के लिए पानी के बीच गड्ढे खोदे जाने लगे । अचानक ही एक गड्ढे की खुदाई के दौरान पानी का एक काफ़ी मोटा स्रोत फूट पड़ा । यह स्रोत इतना जबरदस्त था कि पानी की मोटी धार आसमान मेँ लगभग 50 फीट की ऊँचाई तक जा रही थी । पानी के इस स्रोत को रोकने के सभी स्थानीय प्रयास विफल हो गए । पानी के इस स्रोत का दबाव इतना अधिक था कि जब इसे रोकने के लिए इसके गड्ढे मेँ लकड़ी की मोटी - मोटी म्याल डाली गईँ तो पानी ने उन्हेँ कई फीट ऊपर उछाल दिया । प्रकृति के इस चमत्कार को देखने के लिए न केवल टिमरनी बल्कि आसपास के कई गाँवोँ से भी जन सैलाब उमड़ पड़ा । जिसने भी सुना वो इस अजूबे को देखने के लिए दौड़ पड़ा । कहते हैँ कि यह चमत्कार लगातार कई दिनोँ तक चलता रहा था । अन्त मेँ नागपुर तथा अन्य स्थानोँ से विशेषज्ञ बुलाए गए और उन्होँने इस स्रोत मेँ सीमेण्ट की भरी की भरी अनेक बोरियाँ झोँक डालीँ तब कहीँ जाकर पानी का दबाव कम हुआ और आखिर मेँ उसे बन्द करने मेँ सफलता प्राप्त हुई । इस प्रकार राधाबाई के इस पुल के निर्माण का रोचक इतिहास जो कि समय के साथ धुँधला पड़ता जा रहा था टिमरनी के बारे मेँ जानने की इच्छुक नई पीढ़ी के लिए एक अच्छी जानकारी के रूप मेँ मैँने सहेजने का प्रयास किया है । मुझे विश्वास है कि जिज्ञासु पाठक इस पर अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराने हेतु मुझे अवश्य ही ई मेल करेँगे ।
धन्यवाद ।
- रमेश दीक्षित , टिमरनी