रविवार, 31 जनवरी 2010

तिमिर हरणी

' तिमिर हरणी ' श्रृंखला का तीसरा भाग आज आपके समक्ष प्रस्तुत है । पहले और दूसरे भाग मेँ ' टिमरनी ' के नाम और उसकी प्राचीनता की चर्चा की गई थी । इस श्रृंखला मेँ रुचि रखने वाले होशंगाबाद निवासी युवा कवि और ' सरल - चेतना ' पत्रिका के सम्पादक भाई हेमन्त रिछारिया ने मुझे कुछ महत्वपूर्ण और उपयोगी सुझाव दिए हैँ । उनके सुझावोँ पर अमल करते हुए इस श्रृंखला को लिखने का प्रयत्न करूँगा । मैँ भाई हेमन्त रिछारिया को उनके सुझावोँ के लिए हृदय से धन्यवाद देता हूँ ।
टिमरनी मेँ जो गढ़ी है उसके मुख्य प्रवेश द्वार के अन्दर आगे एक छोटा सा प्राचीन गणेश जी का मन्दिर है । इस मन्दिर के गर्भ गृह मेँ लगभग रेँगकर ही प्रवेश किया जा सकता है । गर्भ गृह अत्यंत संकीर्ण होने से इसके अन्दर एक बार मेँ केवल एक व्यक्ति ही भली भाँति पूजा अर्चना कर सकता है । यह मन्दिर लगभग छुपा हुआ है । बाहर से देखने पर यह एक छोटा सा मकान जैसा दिखाई देता है । अनभिज्ञ व्यक्ति बाहर से देखकर इसे घर ही कहेगा । गणपति की साधना - आराधना करने वालोँ के लिए यह एक आदर्श स्थान है । कहा जाता है कि टिमरनी मेँ गणेश जी का यह सबसे प्राचीन और अत्यंत सिद्ध मन्दिर है तथा यहाँ साधना करने से साधक को कई गुना फल प्राप्त होता है । कभी इस मन्दिर के ओसारे मेँ ब्राह्मण बटुक भगवान गणेश की साक्षी मेँ वेदाध्ययन किया करते थे और अनेक विद्वान पण्डित उन्हेँ धर्म , ज्योतिष और शास्त्रोँ की उच्च कोटि की शिक्षा दिया करते थे जिसके कारण टिमरनी विद्वानोँ की नगरी के रूप मेँ जानी जाती थी । वेदाध्ययन की यह परम्परा काल और परिस्थितियोँ के चलते आगे नहीँ चल सकी लेकिन यह स्वाभाविक ही है कि जिस प्रांगण मेँ कभी वेदोँ के स्वर गूँजे होँ वह तो सिद्ध स्थान होगा ही । कालान्तर मेँ इस स्थान पर राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रेमियोँ ने अपनी साहित्यिक गतिविधियाँ प्रारंभ कर दीँ । इन साहित्यिक हलचलोँ के आज़ादी के बाद तक चलने की जानकारी मिलती है । आज़ादी के पूर्व साहित्य की चर्चाओँ और कार्यक्रमोँ का एक केन्द्र बालाजी का मन्दिर भी हुआ करता था । जहाँ आजकल विनोद कुमार गुलाबचन्द जैन की हार्डवेयर की दूकान है वहाँ कभी एक अत्यन्त समृद्ध पुस्तकालय और वाचनालय हुआ करता था । यह जगह भी टिमरनी के कुछ विशेष आयोजनोँ और बैठकोँ के लिए निश्चित थी । एक पुस्तकालय और वाचनालय गढ़ी के प्रवेश द्वार के दायीँ ओर स्थित भवन मेँ भी चला करता था । इन सभी स्थानोँ पर साहित्यिक , सांस्कृतिक और स्वतंत्रता के आन्दोलनोँ से सम्बधित राजनैतिक गतिविधियाँ साथ - साथ चला करती थीँ । साहित्यिक कार्यक्रमोँ मेँ तब कवि गोष्ठियाँ ही प्रमुख रूप से होती थीँ । इन कवि गोष्ठियोँ मेँ तब ' समस्यापूर्ति ' का खूब चलन था । एक पंक्ति या फिर एक शब्द दे दिया जाता था जिसका उपयोग प्रत्येक कवि को अपनी कविता मेँ करना होता था । समस्यापूर्ति के लिए कवि गण अपनी सम्पूर्ण क्षमता और योग्यता का परिचय देते हुए श्रेष्ठ कविताएँ रचते थे जिनमेँ अधिकतर कवित्त या सवैया छन्द होते थे । समस्यापूर्ति के लिए दी गई ' पेड़ हिलै पै हिलै नहीँ पत्ता ' और ' जल छोड़ के मछली वृक्ष चढ़ी ' जैसी पंक्तियाँ अनेक पुराने बुजुर्गोँ को आज भी अच्छी तरह से स्मरण हैँ । कौन कवि किस चतुराई से समस्या की पूर्ति करके लाता है इसकी जिज्ञासा सभी को हुआ करती थी और इसीलिए इन गोष्ठियोँ मेँ कवियोँ के अलावा श्रोताओँ की भी अच्छी खासी उपस्थिति रहती थी । साहित्य और मातृभाषा के प्रति समर्पित कुछ उत्साही युवक तब एक हस्तलिखित पत्रिका ' मित्र ' का प्रतिमाह प्रकाशन करते थे । प्रत्येक अंक का सम्पादक अलग होता था । इसमेँ लेख , कविताएँ , कहानियाँ , व्यंग्य लेख , चित्रकला , व्यंग्य चित्र और सम्पादकीय आदि वो सब कुछ होता था जो एक श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका के लिए लाजिमी होता है । इस हस्तलिखित पत्रिका का एक दुर्लभ अंक मेरे पास जीर्ण -शीर्ण अवस्था मेँ मौजूद है जिसे मैँने धरोहर की तरह सँभालकर रखा है । इस पत्रिका के अन्य अंक टिमरनी मेँ कुछ परिवारोँ मेँ पुराने कागज पत्रोँ के बीच पड़े हो सकते हैँ । मेरे जैसे व्यक्ति के लिए यदि ये चीजेँ खजाना हैँ तो किसी और के लिए इनकी अहमियत रद्दी से अधिक नहीँ । आवश्यकता है ऐसे दुर्लभ दस्तावेजोँ को ढूँढने और उन्हेँ सहेजने की । पर इसके लिए समय , श्रम और लोगोँ के रचनात्मक सहयोग की दरकार है । अन्यथा ये अनमोल धरोहर काल के गाल मेँ समाहित हो सकती है । इस हस्तलिखित पत्रिका ' मित्र ' का जो अंक मेरे पास उपलब्ध है वह सन 1932 का है । इस अंक मेँ प्रकाशित रचनाओँ और रचनाकारोँ के बारे मेँ मैँ आगे चर्चा करूँगा ।
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सोमवार, 11 जनवरी 2010

महँगाई मार गई

वो जमाना लद गया जब महँगाई अर्थशास्त्र के माँग और पूर्ति के नियम के अनुसार बढ़ती या घटती थी । अब तो महँगाई मंत्रियोँ के बयानोँ से बढ़ती है । केन्द्र सरकार के एक मंत्री का काम केवल बयान देकर महँगाई को बढ़ाना है । होना तो यह था कि ऐसे गैरजिम्मेदाराना बयान देने वाले मंत्री को लात मारकर बाहर निकाल देना था । पर जिन्हेँ गरीब जनता की चिन्ता के बजाय अपनी और अपनी सरकार की चिन्ता अधिक हो उनसे आप ऐसे नैतिक साहस की अपेक्षा भला कैसे कर सकते हैँ ? कोई बात नहीँ लेकिन याद रहे गरीबोँ की आह मेँ लोहे को भी भस्म करने की ताकत होती है । ये मंत्री ऐसी मौत मरेँगे जिसकी कभी किसी ने कल्पना भी नहीँ की होगी । उसके पूरे खानदान मेँ कोई दिया बाती लगाने वाला भी नहीँ बचेगा । ये हरामजादे जनता के खून पसीने की कमाई पर ऐश कर रहे हैँ । उन्हेँ भला गरीबोँ की क्या चिन्ता ? मिल मालिकोँ और उद्योगपतियोँ से अरबोँ रुपये चुनावी चन्दा लेकर अनैतिक तरीके से चुनाव जीतकर ये जनता के मालिक बन बैठे हैँ । और अब जनता को अंधाधुंध महँगाई की चक्की मेँ पीस -पीस कर मार रहे हैँ । मैँ और मेरे जैसे असंख्य गरीब लोग भगवान से दिन रात यही प्रार्थना कर रहे हैँ कि बयान दे दे कर महँगाई को बढ़वाने वाले मंत्री का काला मुँह हो जाए और उसको घोर कुम्भीपाक तथा रौरव नर्क की यातनाएँ झेलना पड़े । ऐसी नालायक और दुष्ट सरकार का महा सत्यानाश हो । जय जनता - जय जनार्दन ।

शनिवार, 9 जनवरी 2010

तिमिर हरणी

गत 1 जनवरी को मैँने तिमिर हरणी अर्थात टिमरनी नामक यह लेख श्रृंखला प्रारंभ की थी । उसमेँ मैँने ' टिमरनी ' के नाम के बारे मेँ प्रचलित प्राचीन मान्यताओँ की चर्चा की थी । आज के लेख मेँ ' टिमरनी ' नगर की प्राचीनता की पड़ताल करने का प्रयास करूँगा । कई वर्ष पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक महत्वपूर्ण बैठक टिमरनी मेँ सम्पन्न हुई थी जिसमेँ भाग लेने हेतु विश्वविख्यात पुरातत्ववेत्ता डॉ. हरिभाऊ वाकणकर यहाँ पधारे थे । बैठक के विभिन्न सत्रोँ के बीच समय निकालकर वे अपनी रुचि के अनुसार टिमरनी की प्राचीन धरोहरोँ और आसपास बिखरी दुर्लभ पुरा सम्पदा का अन्वेषण करते थे । अपने इसी अन्वेषण के आधार पर उन्होँने टिमरनी के अस्तित्व को छ: सौ वर्षोँ से भी अधिक पुराना प्रतिपादित किया था और इस बारे मेँ एक विस्तृत आलेख लिखकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक और टिमरनी निवासी मूर्धन्य विद्वान स्वर्गीय भाऊ साहब भुस्कुटे के पास भेजा था । इस आलेख की चर्चा स्व. भाऊ साहब जी ने स्वाभाविक ही कुछ लोगोँ से की थी । इन्हीँ मेँ से किसी सज्जन ने वह आलेख पढ़ने के लिए भाऊ साहब जी से माँग लिया और फिर कभी नहीँ लौटाया । इस प्रकार एक दुर्लभ दस्तावेज किसी लापरवाह व्यक्ति की ग़ैरजिम्मेदाराना हरक़त की भेँट चढ़ गया । स्व. भाऊ साहब भुस्कुटे को अपने देशव्यापी प्रवासोँ की व्यस्तता के चलते यह विस्मृति हो गई कि उन्होँने उक्त आलेख किसे दिया था ? स्वयं भाऊ साहब जी ने इस बारे मेँ एकाधिक बार मुझसे इस बात का उल्लेख किया था ।
टिमरनी का प्राचीन किला , जिसे यहाँ ' गढ़ी ' के नाम से जाना जाता है , भी पुरातात्विक काल गणना के अनुसार छ: सौ वर्षोँ से अधिक पुराना है । इसी गढ़ी के आग्नेय बुर्ज़ के नीचे बाहर की ओर एक छोटा परन्तु अति प्राचीन मन्दिर है जिसे पुराणिक बुआ के मन्दिर के नाम से जाना जाता है । कुछ लोग इसे मुलिया बाई के मन्दिर के नाम से भी जानते हैँ ।इस मन्दिर मेँ स्थित हनुमान जी की मूर्ति के नीचे एक इबारत खुदी हुई है जिससे भी इसके छ: सौ वर्षोँ से अधिक प्राचीन होने का पता चलता है । यहाँ पर यत्र - तत्र पड़ी प्राचीन मूर्तियाँ कुछ वर्ष पूर्व होशंगाबाद के जिला पुरातत्व संग्रहालय मेँ ले जाकर रख दी गई हैँ । होशंगाबाद के इसी संग्रहालय मेँ टिमरनी की दो नर्तकियोँ की प्राचीन प्रतिमाओँ के छायाचित्र लगे हुए हैँ जो बारहवीँ शताब्दी की हैँ । ये प्रस्तर प्रतिमाएँ आज भी टिमरनी की गढ़ी की दीवार के अन्दरूनी भाग मेँ लगी हुई हैँ । इसके अतिरिक्त इस गढ़ी की चहारदीवारी और बुर्ज़ोँ मेँ भी अनेक दुर्लभ मूर्तियाँ और पुरा सामग्री विद्यमान है । कुछ वर्षोँ पूर्व गढ़ी के बाहर पूर्वी भाग मेँ स्थित बस्ती मेँ दो मकानोँ के जीर्णोद्धार के समय की गई खुदाई मेँ दो नर कंकाल निकले थे लेकिन जागरुकता के अभाव और किसी लफड़े मेँ पड़ने के डर के चलते चुपचाप उन नरकंकालोँ को नर्मदा जी मेँ विसर्जित कर दिया गया अन्यथा उन प्राचीन नरकंकालोँ के अध्ययन से टिमरनी के प्राचीन इतिहास पर कुछ और प्रकाश पड़ सकता था । ऐसी भी किँवदन्तियाँ यहाँ सुनने को मिलती हैँ कि पुराने समय मेँ टिमरनी बस्ती वर्तमान रेल्वे लाइन के उत्तर मेँ तिड़क्यान बाबा के मन्दिर के आसपास बसी हुई थी । पिण्डारियोँ की लूटपाट के समय बस्ती के लोग भागकर गढ़ी के अन्दर शरण लिया करते थे । जब इस प्रकार की वारदातेँ बढ़ने लगीँ तो बस्ती के लोगोँ ने गढ़ी के आसपास बसना शुरू कर दिया । और धीरे - धीरे सभी लोग सुरक्षा की दृष्टि से गढ़ी के आसपास आकर बस गए । इस दृष्टि से टिमरनी बस्ती हरदा से भी प्राचीन सिद्ध होती है ।
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तिमिर हरणी

गत 1 जनवरी को मैँने तिमिर हरणी अर्थात टिमरनी नामक यह लेख श्रृंखला प्रारंभ की थी । उसमेँ मैँने ' टिमरनी ' के नाम के बारे मेँ प्रचलित प्राचीन मान्यताओँ की चर्चा की थी । आज के लेख मेँ ' टिमरनी ' नगर की प्राचीनता की पड़ताल करने का प्रयास करूँगा । कई वर्ष पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक महत्वपूर्ण बैठक टिमरनी मेँ सम्पन्न हुई थी जिसमेँ भाग लेने हेतु विश्वविख्यात पुरातत्ववेत्ता डॉ. हरिभाऊ वाकणकर यहाँ पधारे थे । बैठक के विभिन्न सत्रोँ के बीच समय निकालकर वे अपनी रुचि के अनुसार टिमरनी की प्राचीन धरोहरोँ और आसपास बिखरी दुर्लभ पुरा सम्पदा का अन्वेषण करते थे । अपने इसी अन्वेषण के आधार पर उन्होँने टिमरनी के अस्तित्व को छ: सौ वर्षोँ से भी अधिक पुराना प्रतिपादित किया था और इस बारे मेँ एक विस्तृत आलेख लिखकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक और टिमरनी निवासी मूर्धन्य विद्वान स्वर्गीय भाऊ साहब भुस्कुटे के पास भेजा था । इस आलेख की चर्चा स्व. भाऊ साहब जी ने स्वाभाविक ही कुछ लोगोँ से की थी । इन्हीँ मेँ से किसी सज्जन ने वह आलेख पढ़ने के लिए भाऊ साहब जी से माँग लिया और फिर कभी नहीँ लौटाया । इस प्रकार एक दुर्लभ दस्तावेज किसी लापरवाह व्यक्ति की ग़ैरजिम्मेदाराना हरक़त की भेँट चढ़ गया । स्व. भाऊ साहब भुस्कुटे को अपने देशव्यापी प्रवासोँ की व्यस्तता के चलते यह विस्मृति हो गई कि उन्होँने उक्त आलेख किसे दिया था ? स्वयं भाऊ साहब जी ने इस बारे मेँ एकाधिक बार मुझसे इस बात का उल्लेख किया था ।
टिमरनी का प्राचीन किला , जिसे यहाँ ' गढ़ी ' के नाम से जाना जाता है , भी पुरातात्विक काल गणना के अनुसार छ: सौ वर्षोँ से अधिक पुराना है । इसी गढ़ी के आग्नेय बुर्ज़ के नीचे बाहर की ओर एक छोटा परन्तु अति प्राचीन मन्दिर है जिसे पुराणिक बुआ के मन्दिर के नाम से जाना जाता है । कुछ लोग इसे मुलिया बाई के मन्दिर के नाम से भी जानते हैँ ।इस मन्दिर मेँ स्थित हनुमान जी की मूर्ति के नीचे एक इबारत खुदी हुई है जिससे भी इसके छ: सौ वर्षोँ से अधिक प्राचीन होने का पता चलता है । यहाँ पर यत्र - तत्र पड़ी प्राचीन मूर्तियाँ कुछ वर्ष पूर्व होशंगाबाद के जिला पुरातत्व संग्रहालय मेँ ले जाकर रख दी गई हैँ । होशंगाबाद के इसी संग्रहालय मेँ टिमरनी की दो नर्तकियोँ की प्राचीन प्रतिमाओँ के छायाचित्र लगे हुए हैँ जो बारहवीँ शताब्दी की हैँ । ये प्रस्तर प्रतिमाएँ आज भी टिमरनी की गढ़ी की दीवार के अन्दरूनी भाग मेँ लगी हुई हैँ । इसके अतिरिक्त इस गढ़ी की चहारदीवारी और बुर्ज़ोँ मेँ भी अनेक दुर्लभ मूर्तियाँ और पुरा सामग्री विद्यमान है । कुछ वर्षोँ पूर्व गढ़ी के बाहर पूर्वी भाग मेँ स्थित बस्ती मेँ दो मकानोँ के जीर्णोद्धार के समय की गई खुदाई मेँ दो नर कंकाल निकले थे लेकिन जागरुकता के अभाव और किसी लफड़े मेँ पड़ने के डर के चलते चुपचाप उन नरकंकालोँ को नर्मदा जी मेँ विसर्जित कर दिया गया अन्यथा उन प्राचीन नरकंकालोँ के अध्ययन से टिमरनी के प्राचीन इतिहास पर कुछ और प्रकाश पड़ सकता था । ऐसी भी किँवदन्तियाँ यहाँ सुनने को मिलती हैँ कि पुराने समय मेँ टिमरनी बस्ती वर्तमान रेल्वे लाइन के उत्तर मेँ तिड़क्यान बाबा के मन्दिर के आसपास बसी हुई थी । पिण्डारियोँ की लूटपाट के समय बस्ती के लोग भागकर गढ़ी के अन्दर शरण लिया करते थे । जब इस प्रकार की वारदातेँ बढ़ने लगीँ तो बस्ती के लोगोँ ने गढ़ी के आसपास बसना शुरू कर दिया । और धीरे - धीरे सभी लोग सुरक्षा की दृष्टि से गढ़ी के आसपास आकर बस गए । इस दृष्टि से टिमरनी बस्ती हरदा से भी प्राचीन सिद्ध होती है ।
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शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

टिमरनी अर्थात तिमिर हरणी

' टिमरनी ' , मध्य प्रदेश का ग्रामीण परम्पराओँ और शहरी मानसिकता वाला एक छोटा सा नगर । आबादी लगभग बीस हजार । देश के हजारोँ ऐसे ही नगरोँ से कई मामलोँ मेँ अलग और अनूठा है टिमरनी नगर । इस ब्लॉग मेँ टिमरनी के भूत , वर्तमान और सम्भव हुआ तो भविष्य की भी चर्चा होगी । इसके ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व , इसकी परम्परा , संस्कृति , विरासत और राजनीति को भी समझने की कोशिश की जाएगी । इसके चाल , चरित्र और चेहरे को पढ़ने का प्रयास भी होगा । यहाँ की किँवदन्तियोँ , हस्तियोँ और प्रमुख घटनाओँ का उल्लेख भी यहाँ क्रमश: करने का प्रयत्न होगा । इसके अलावा टिमरनी के बारे मेँ जो कुछ भी लिखने योग्य होगा वो सब आपको यहाँ पढ़ने को मिल सकता है । इस बारे मेँ आपके बहुमूल्य सुझावोँ का हमेशा स्वागत होगा । बस आप इसे पढ़ते रहिये । मुझे विश्वास है कि टिमरनी के बारे मेँ रुचि रखने वाले लोग जरूर इस उपक्रम को पसंद करेँगे ।
तो आइये ! आरम्भ करते हैँ इस नगर के नाम से । टिमरनी के बारे मेँ कहा जाता है कि यह देववाणी संस्कृत के शब्द ' तिमिर ' और ' हरणी ' को मिलाकर बने ' तिमिरहरणी ' शब्द का ही तद्भव रूप है जिसका अर्थ होता है अंधकार को हरने वाला । ' टिमरनी ' नाम के बारे मेँ प्रचलित मान्यताओँ मेँ यही सर्वाधिक उचित भी जान पड़ती है क्योँकि प्राचीनकाल मेँ अनेक उद्भट और मूर्धन्य विद्वान यहाँ निवास किया करते थे जो ज्ञान मेँ काशी के पण्डितोँ से भी शास्त्रार्थ करने की योग्यता रखते थे । यही कारण था कि टिमरनी को ' छोटी काशी ' की संज्ञा से भी विभूषित किया जाता था । टिमरनी के ये सभी विद्वान अपने धर्म , कर्म और वाणी से यहाँ के लोगोँ मेँ व्याप्त अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने का श्रेष्ठ कार्य किया करते थे । उनके इन्हीँ कार्योँ के फलस्वरूप इस स्थान को ' तिमिर हरणी ' कहा जाने लगा जो बाद मेँ ' टिमरनी ' हो गया । ऐसा कहते हैँ कि एक बार पड़ोस के निमाड़ क्षेत्र के किसी गाँव मेँ यज्ञ का आयोजन हुआ । पण्डितोँ की स्वाभाविक ईर्ष्या के चलते उस यज्ञ मेँ टिमरनी के किसी भी पण्डित को न तो आमंत्रित किया गया और न ही यज्ञ के सम्बन्ध मेँ उनसे कोई सलाह ली गई । लेकिन सहज श्रद्धा के कारण यहाँ के कुछ पण्डित उस यज्ञ मेँ दर्शनार्थ पहुँच गये । वहाँ पहुँचकर उन्हेँ यह अनुभव हुआ कि यज्ञ स्थल का चयन करने मेँ कुछ भूल हुई है । किसी अनिष्ट या अनहोनी को टालने के लिए उन्होँने आयोजकोँ से पूछा कि क्या यज्ञ के पूर्व यज्ञस्थल का भूमिशोधन किया गया था ? उन्हेँ उत्तर मिला कि इसकी क्या आवश्यकता है ? तब टिमरनी के पण्डितोँ ने कहा कि यदि यज्ञभूमि अशुद्ध हुई तो यज्ञ का अभीष्ट सिद्ध नहीँ हो पाएगा । जब कुछ लोगोँ को इन पण्डितोँ की बात ठीक लगी तो यज्ञस्थल की खुदाई की गई । उस समय वहाँ उपस्थित लोगोँ के आश्चर्य का ठिकाना नहीँ रहा जब वहाँ खुदाई मेँ ऊँट की हड्डियोँ का एक ढाँचा निकला । तब सभी लोग इन पण्डितोँ की विद्वता का लोहा मान गये ।
एक दूसरी घटना इस प्रकार बताई जाती है कि यहाँ के एक विद्वान पण्डित से किसी ने पूछा कि आज कौन सी तिथि है ? उस दिन अमावस्या थी लेकिन भूलवश उनके मुँह से निकल गया कि आज पूर्णिमा है । इस पर पूछने वाले ने उनकी विद्वता की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि आप कैसे पण्डित हो ? आज तो अमावस्या है और आप पूर्णिमा बता रहे हो । पण्डितजी को अपनी भूल का अहसास तो हो गया लेकिन तीर तरकश से निकल चुका था । उस व्यक्ति ने इस बात को लेकर नगर मेँ पण्डितजी की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए दुष्प्रचार कर दिया । पण्डितजी इससे बहुत आहत हुए । अन्तत: उन्होँने यह घोषणा कर दी कि जब उनके मुँह से निकला है कि आज पूर्णिमा है तो फिर आज सभी को पूर्णिमा के चाँद के दर्शन अवश्य ही होँगे । इसके बाद सायंकाल पण्डितजी ने एक काँसे की चमचमाती हुई बड़ी सी थाली मेँ चन्दन से कोई सिद्ध मंत्र लिखा और उस थाली को आकाश मेँ पूर्व दिशा की ओर जोर से उछाल दिया । थाली घनघनाती हुई आकाश की ओर चली गई । उस शाम टिमरनी के लोगोँ ने आकाश मेँ अद्भुत दृश्य देखा । अमावस्या होने के बाद भी आकाश पूर्णिमा के चाँद से आलोकित हो रहा था , टिमरनी का हर आँगन और गली - कूचा स्वच्छ , निर्मल और दूधिया चाँदनी मेँ नहा रहा था । एक पण्डित ने अपने मुँह से भूलवश निकले वचनोँ को सत्य सिद्ध करते हुए अमावस्या के तिमिर का हरण कर लिया था इसीलिए इस नगर को ' तिमिर - हरणी ' कहा गया ।
टिमरनी के नाम को लेकर एक अन्य धारणा यह भी है टिमरनी के निकट के जंगलोँ मेँ उच्चकोटि की सागौन की इमारती लकड़ी बहुतायत से पाई जाती है । ' टिम्बर ' अर्थात लकड़ी और ' नियर ' अर्थात पास मेँ । इस प्रकार अँग्रेजोँ के द्वारा ' टिम्बर - नियर ' कहने के कारण कालान्तर मेँ इस नगर को टिम्बरनियर के उच्चारण की सुविधा के कारण स्थानीय लोग टिमरनी कहने लगे । लेकिन यह धारणा अँग्रेजी काल से जुड़ी होने के कारण कुछ अर्वाचीन लगती है जबकि इस नगर का अस्तित्व अँग्रेजी काल से बहुत पुराना है । इस कारण टिमरनी के नाम को लेकर तिमिर हरणी वाली धारणा अधिक उपयुक्त और तर्कसंगत मालूम होती है । टिमरनी की मिट्टी , हवा और पानी मेँ ही कुछ ऐसी विशेषता है कि यहाँ के लोगोँ का ' आई क्यू ' इसी स्तर के अन्य नगरोँ के लोगोँ की तुलना मेँ अधिक होता है । शायद यह टिमरनी के उन्हीँ प्राचीन पण्डितोँ की तपस्या का ही सुफल है जिनके तपोबल से यहाँ का वायुमण्डल अब तक प्रभावी जान पड़ता है ।

..... क्रमश: