सोमवार, 31 अगस्त 2009

क़व्वालियाँ

हर तरफ़ बजने लगी हैँ तालियाँ ।
गीत जब से हो गए क़व्वालियाँ ।
किस तरह तोड़ेँ फलोँ को पेड़ से ,
और ऊँची हो गई हैँ डालियाँ ।
अच्छे-अच्छे शब्द अपने पास हैँ ,
क्योँ भला फिर देँ किसी को गालियाँ ।
अब कहाँ रौनक बची रुख़सार पर ,
हो गईँ ग़ायब लबोँ से लालियाँ ।
नाम सीता और गीता अब कहाँ ,
अब यहाँ हैँ रूबियाँ , शेफ़ालियाँ ।
बाँट दी खुशियाँ सभी जो पास थीँ ,
माँग लीँ अपने लिए बेहालियाँ ।
अब कोई चेहरा नज़र आता नहीँ ,
खिड़कियोँ पर जड़ गई हैँ जालियाँ ।
सो गए हुक़्क़ाम चादर तानकर ,
फिर करेगा कौन देखा भालियाँ ।

आशियाने की

मिली हैँ चंद घड़ियाँ ज़िन्दगी मेँ मुस्कराने की ।
चलो फिर बात कर लेँ आज कुछ हँसने हँसाने की ।
अभी खाली नहीँ दुनिया हुई है क़द्रदानोँ से ,
कहीँ से आएगी आवाज़ हमको भी बुलाने की ।
अग़र गाऊँ तो ख़ुश हूँ मैँ, सभी ऐसा समझते हैँ ,
मुझे आदत है मुश्क़िल दौर मेँ भी गुनगुनाने की ।
फ़क़त मैँने तो अपनी दास्ताने ग़म सुनाई थी ,
मेरी मंशा नहीँ थी दरअसल तुमको रुलाने की ।
न बारिश है , न सर्दी है , न मौसम है बहारोँ का ,
तलब क्योँ उठ रही है आज फिर घर लौट जाने की ।
ग़ुज़ारे थे जहाँ पर ज़िन्दगी के कुछ अहम लमहे ,
अभी तक याद आती है हमेँ उस आशियाने की ।

रविवार, 30 अगस्त 2009

भा.ज.पा. की अन्तर्कलह

भारतीय जनता पार्टी के लिए इससे अधिक लज्जा की बात और क्या हो सकती है कि उसकी अन्तर्कलह पर काँग्रेस नेता और प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिँह चिन्ता व्यक्त करेँ । वैसे तो काँग्रेस के मन मेँ इन घटनाओँ से लड्डू फूट रहे होँगे लेकिन ऐसी चिन्ता प्रकट करके काँग्रेस ने यह जताने का प्रयास किया है कि वह लोकतंत्र मेँ मजबूत विपक्ष की पक्षधर है । जबकि ऐसे प्रकरणोँ से काँग्रेस का इतिहास भरा पड़ा है । वैसे तो भाजपा के वैचारिक अवधान मेँ स्खलन भारतीय जनसंघ के समय मेँ ही प्रारंभ हो गया था । पं.दीनदयाल उपाध्याय की दु:खदायी हत्या के बाद कुछ समय तक सब कुछ ठीक चला लेकिन किसी समय जनसंघ के अध्यक्ष पद को सुशोभित कर चुके बलराज मधोक को जब पार्टी से निष्कासित कर दिया गया तो यह अहसास होने लगा कि जनसंघ के दिये के तेल मेँ कुछ गड़बड़ है । संयोग से जिस दिन बलराज मधोक को बाहर किया गया था वे ग्वालियर मेँ थे और मैँ उन दिनोँ वहाँ पत्रकारिता का ककहरा सीख रहा था । कमलाराजा कन्या महाविद्यालय कम्पू मेँ एक संगोष्ठी मेँ शिरकत करने वे ग्वालियर आए थे । इसी संगोष्ठी मेँ तत्कालीन युवातुर्क चन्द्रशेखर काँग्रेस की ओर से तथा प्रो.एन.जी.गोरे समाजवादियोँ के प्रतिनिधि के रूप मेँ शामिल हुए थे । यहीँ मञ्च पर चन्द्रशेखर ने मधोकजी को उनके निष्कासन की सूचना दी। कार्यक्रम के बाद प्रो.बलराज मधोक से मेरी एक संक्षिप्त भेँट हुई । मैँने उनके निष्कासन पर उनकी प्रतिक्रिया जानना चाही तो उन्होँने केवल इतना ही कहा था कि यह दु:खद है । उनके शब्द भले ही थोड़े से थे पर उनका चेहरा तब के जनसंघ और अब भाजपा के भविष्य को लेकर बहुत कुछ बयान कर रहा था । शायद यह जनसंघ के वैचारिक अवधान के लिए पहला झटका था । यह 1973-74 का वह समय था जब जनसंघ विचारोँ और सिद्धांतोँ के प्रति समर्पित कार्यकर्ताओँ पर आधारित पार्टी के रूप मेँ देश मेँ अपना स्थान बना चुका था । ऐसे समय मेँ अपेक्षाकृत युवा लालकृष्ण आडवाणी के हाथोँ मेँ जनसंघ की बागडोर सौँपी गई । कार्यकर्ताओँ मेँ कुछ उत्साह का संचार हुआ । कुछ समय बाद देश पर आपातकाल थोपा गया । प्राय: सभी विपक्षी नेता जेल भेज दिए गए । 19 महीनोँ तक इस देश ने अन्याय,अत्याचार और शोषण को भोगा । फिर आपातकाल हटा । नेतागण जेल से छोड़े गए । विपक्षी नेताओँ की खिचड़ी पकी और सबने मिलकर काँग्रेस को पटखनी देने के एकसूत्रीय कार्यक्रम के तहत अपनी-अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओँ को तिलांजलि देकर जनता पार्टी का गठन किया । आम चुनाव हुए तो जनता पार्टी को अभूतपूर्व सफलता मिली । लेकिन इस विजय को अलग-अलग विचारधाराओँ वाले नेता अधिक समय तक पचा नहीँ पाए और अन्तत: जनता पार्टी बिखर गई । यह तो होना ही था क्योँकि यह जीत उनकी थी ही नहीँ वास्तव मेँ यह आपातकाल के दौरान व्यापक पैमाने पर की गई जबरन नसबंदी का असर था जिसके भय से लोगोँ ने हर हाल मेँ काँग्रेस को हटाने का जनादेश दिया था । जनता पार्टी के पतन के बाद जनसंघ से जुड़े लोगोँ ने भारतीय जनता पार्टी का गठन किया और छुटपुट विरोध के बाद गाँधीवादी समाजवाद को अपने उद्देश्योँ मेँ शामिल किया । वैचारिक अवधान मेँ परिवर्तन का यह एक और शिलालेख बन गया । अपनी -अपनी पार्टियोँ मेँ उपेक्षित कई काँग्रेसी और समाजवादी अपना भविष्य सुरक्षित बनाने के लिए भाजपा मेँ शामिल हो गए । सत्ता का सुख भोग चुके ये लोग अपने साथ काजल की कोठरी से ढेर सारा काजल लेकर आए थे जिसने भाजपा के कई नेताओँ को भी रँग दिया । भाजपा के कई नेता भी सत्तासुन्दरी के प्रति आकर्षित दिखाई देने लगे । कुछ अपवादोँ को छोड़ देँ तो अधिकतर भाजपाई अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता भूल गए और उनका कथित रूप से काँग्रेसीकरण हो गया । येन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्ति ही उनका उद्देश्य हो गया । नीचे से ऊपर तक कमोबेश यही स्थिति निर्मित हो गई । जनहित पीछे छूट गया । स्वार्थ और भ्रष्टाचार की अपसंस्कृति विकसित हो गई । कहा जा सकता है कि भाजपा काँग्रेस का नया संस्करण बन गई । मुझे यह लगता है कि भाजपा को जनसंघ के समय के वैचारिक अवधान की ओर लौटना होगा । अखण्ड भारत,समान नागरिक संहिता,रामजन्मभूमि और धारा 370 के मुद्दे उसे पुरजोर ढंग से अपने एजेण्डे मेँ रखना चाहिए तभी उसे अपना खोया हुआ स्थान पुन: प्राप्त हो सकता है । सेकुलर छबि बनाने के फेर मेँ उसकी स्थिति न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम की हो गई है । भाजपा का वर्तमान संकट एक अवसर लेकर आया है जिसका उपयोग उसे अपने आप को बदलने के लिए कर लेना चाहिए । आत्ममंथन का यह अच्छा समय उपलब्ध हुआ है । इसे भुनाने मेँ अब देर नहीँ करना चाहिए वरना एक दिन भाजपा इतिहास की वस्तु हो जाएगी । आशा की जानी चाहिए कि भाजपा इस संकट से उबरकर पुन: अपने समृद्ध स्वरूप मेँ देश की सेवा करके उसे परमवैभव पर पहुँचाने के संकल्प पर चलेगी । अस्तु ।

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

मुझको

प्रेम से जिसका भी जी चाहे बुला ले मुझको ।
रोक पायेँगे नहीँ पाँव के छाले मुझको ।
मेरी तक़दीर अँधेरोँ से बँधी है लेकिन ,
हर जरूरत मेँ मयस्सर हैँ उजाले मुझको ।
दास्ताँ पूछकर अच्छा नहीँ किया तुमने ,
कर दिया फिर उन्हीँ यादोँ के हवाले मुझको ।
इस क़दर प्यार जताते रहे तो लगता है ,
पड़ेँगे फिर किसी दिन जान के लाले मुझको ।
क्या कमी है ? क्या वजूहात हैँ ? सोचा है कभी ,
दूर क्योँ जा रहे हैँ चाहने वाले मुझको ।

शनिवार, 22 अगस्त 2009

रहते हैँ

नहीँ आज़ाद हैँ हाक़िम की मनमानी मेँ रहते हैँ ।
यहाँ दिन - रात हम उनकी महरबानी मेँ रहते हैँ ।
बग़ावत ग़र हमारा दिल करे , उसको कुचलते हैँ ,
मगर से बैर हम कैसे करेँ , पानी मेँ रहते हैँ ।
मुक़दमे औ अदालत ज़िन्दगी के बन गए हिस्से ,
मुब्तिला फ़ौज़दारी मेँ या दीवानी मेँ रहते हैँ ।
लटकता है सदा खंजर हमारा हाल है ऐसा ,
कि बकरे जिस तरह तैयार क़ुरबानी मेँ रहते हैँ ।
मजा सब किरकिरा अब हो चला है काम करने का ,
सदा हँसते हैँ पर सचमुच परेशानी मेँ रहते हैँ ।
घुटन के बीच इस माहौल मेँ सब ही अकेले हैँ ।
यहाँ पर भीड़ के रहते बियाबानी मेँ रहते हैँ ।
समझदारी , वफ़ादारी सदा आफ़त बुलाती है ,
मजे मेँ बस वही हैँ जो कि नादानी मेँ रहते हैँ ।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

मोहम्मद अली जिन्ना

इसमेँ कोई सन्देह नहीँ कि मोहम्मद अली जिन्ना भारत विभाजन के अपराधी हैँ और इस अपराध के कारण उन्हेँ हम कभी भी क्षमा नहीँ कर सकते । लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीँ है कि हम उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे मेँ कुछ कहना,सुनना,पढ़ना,लिखना या चर्चा करना भी पसन्द न करेँ । इस देश मेँ हमेशा ही विरोधी विचारोँ का सम्मान किया जाता रहा है । कबीर तो सदियोँ पूर्व इसके महत्व को प्रतिपादित कर चुके हैँ । भारतीय जनता पार्टी मेँ जसवन्तसिँह की पुस्तक के कारण इन दिनोँ जो भूचाल आया हुआ है उसने पार्टी मेँ आन्तरिक लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है । यद्यपि मैँने इस पुस्तक को नहीँ पढ़ा है लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार उनसे नहीँ छीना जा सकता । पार्टी से बेआबरू कर निकाले जाने से पहले उनकी पुस्तक पर पार्टी मेँ खुलकर चर्चा होनी चाहिए थी । जसवन्तसिँह ने शायद यह तो कहीँ नहीँ कहा होगा कि ये पार्टी के विचार हैँ । क्या पार्टी मेँ रहकर कोई अपने विचार लिपिबद्ध नहीँ कर सकता ? वैचारिक मतभेद तो लोकतंत्र की शोभा होते हैँ । जसवन्तसिँह जैसे जिम्मेदार और कद्दावर नेता को बाहर का रास्ता दिखाने से पहले दस बार सोचा जाना चाहिए था । अनेक महत्वपूर्ण दायित्वोँ को निभा चुके जसवन्तसिँह ने वामपंथियोँ के गढ़ मेँ जाकर पार्टी का परचम लहराया था । पार्टी उनके योगदान को भुलाकर उनके साथ ऐसा सुलूक करेगी यह थोड़ा अजीब लगता है । आज तक दुनिया मेँ ऐसा कोई इंसान पैदा नहीँ हुआ जिसकी उसके समकालीन लोगोँ ने निन्दा या आलोचना न की हो । राम , कृष्ण , ईसा या गाँधी कोई भी आलोचना से नहीँ बच सका । आलोचना से केवल वही बच सकता है जो बिलकुल निकम्मा और निरुपयोगी हो । फल वाले पेड़ोँ पर ही पत्थर फेँके जाते हैँ , कँटीली झाड़ियोँ पर नहीँ । आलोचना तो किसी व्यक्ति के सफल और सक्रिय जीवन का प्रमाण पत्र होती है । हाल के कुछ वर्षोँ मेँ आलोचना से डरने और स्वस्थ बहस से बचने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । गाँधीजी के नकली चेले और नकली अनुयायी इस प्रवृत्ति मेँ सबसे आगे दिखाई देते हैँ ।गाँधीजी की आत्मा (यदि उनका मोक्ष नहीँ हुआ होगा तो) उनकी इन करतूतोँ से निश्चित ही दु:खी होती होगी क्योँकि गाँधीजी अपने विरोधियोँ और आलोचकोँ के विचारोँ का सम्मान करते थे । लेकिन अब तो भारतीय जनता पार्टी का रवैया भी ऐसा ही लगने लगा है । और हो भी क्योँ न , आख़िर वह भी तो अब काँग्रेस की कार्बन कॉपी बन चुकी है । उसका पुराना वैचारिक अवधान खो चुका है । दूसरोँ के विचारोँ को न सुनना असभ्यता की निशानी माना जाता है । सभ्य उसे कहा जाता है जो सभा मेँ बैठने की योग्यता रखता हो । हमारी संवैधानिक विवशताओँ के कारण देश की उच्च सभाओँ मेँ बड़ी संख्या मेँ ऐसे लोग पहुँचते रहे हैँ जो वहाँ बैठने की पात्रता नहीँ रखते ।मोहम्मद अली जिन्ना के बारे मेँ मैँ इतना जानता हूँ कि वे एक पक्के राष्ट्रवादी थे । पश्चिमी विचारोँ तथा पश्चिमी भाषा और भूषा से वे बहुत प्रभावित थे । एक बैरिस्टर और विचारक के रूप मेँ उनका देश मेँ बड़ा सम्मान था । वे न तो नमाज़ पढ़ते थे और न ही रोज़े रखते थे । कहा जा सकता है कि वे पंथनिरपेक्षता के पक्षधर थे । लेकिन जब उन्होँने यह अनुभव किया कि गाँधीजी उनके जैसे प्रगतिशील सोच के मुसलमान के विचारोँ की अपेक्षा कट्टर मुसलमानोँ के विचारोँ को अधिक महत्व देते हैँ तो उनकी सोच मेँ परिवर्तन आ गया और वे शायर मोहम्मद इक़बाल के द्विराष्ट्रवाद के विचार को आगे बढ़ाने मेँ लग गए । इसका असर यह हुआ कि अब अँग्रेज और गाँधीजी दोनोँ ही उन्हेँ महत्व देने लगे । यही वह कारण था कि एक अच्छा खासा राष्ट्रवादी ,प्रगतिशील और पढ़ा लिखा व्यक्ति कट्टरवादी मुसलमान बन गया । हालाँकि पाकिस्तान बनने के बाद भी उनके पंथनिरपेक्ष विचार कायम थे और इसीलिए उन्होँने पाकिस्तान को एक इस्लामिक देश घोषित करने की बजाए धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया था । लेकिन उनकी मृत्यु के बाद पाकिस्तान का वह स्वरूप कायम नहीँ रह सका । अब मेरे पाठक स्वयं जिन्ना के बारे मेँ अपनी राय तय करेँ और यदि मेरे द्वारा कोई तथ्य अधूरा गलत प्रस्तुत हो गया हो तो मुझे अपनी टिप्पणी से अवगत कराने की कृपा करेँ । अस्तु ।

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

राष्ट्र की सुरक्षा सर्वोपरि

धन्य है भारत का मीडिया जो लोगोँ की समस्याओँ को मुखरता से उठाने की बजाए इन दिनोँ शाहरुख खान के कथित अपमान को लेकर हायतौबा मचा रहा है । अमेरिका द्वारा अपने राष्ट्र की सुरक्षा के प्रति बरती जा रही सावधानियोँ से सबक लेने के बजाए एक अनावश्यक मामले को उछाला जा रहा है । राष्ट्र की सुरक्षा से ऊपर कोई नहीँ हो सकता भले ही वो कोई भी हो कितना भी बड़ा हो । इसी नीति को कठोरता से लागू करने का परिणाम है कि 9/11 के बाद अमेरिका मेँ आतंकवाद की एक भी घटना नहीँ । इसके विपरीत भारत मेँ राष्ट्र की और जनता की सुरक्षा के प्रति घोर और अक्षम्य आपराधिक लापरवाही बरती जा रही है । यहाँ आतंकवादी घटना के बाद रेड अलर्ट घोषित किया जाता है । यह रेड अलर्ट कब ग्रीन हो जाता है इसका पता ही नहीँ चलता । यह कहा जा रहा है कि शाहरुख खान से इसलिए पूछताछ की गई क्योँकि वह मुसलमान है । वास्तव मेँ तो भारतीय मीडिया ऐसा कहकर अमेरिका की सुरक्षा एजेँसियोँ की कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़े कर रहा है । शाहरुख खान की चाटुकारिता करने वाला मीडिया उसे किँग खान और बादशाह खान तक कहता है । अब आप ही सोचिए कि मीडिया मेँ यह कौन सी प्रवृत्ति विकसित होती जा रही है । लेकिन भारतीय मीडिया के लिए यह कोई नई बात नहीँ है । इसके पहले वह राहुल गाँधी को काँग्रेस का युवराज कहकर महिमामण्डित करती रही है । मीडिया का यह कहना कि मुसलमान होने के कारण शाहरुख खान को यह ज़लालत झेलनी पड़ी तो यह मुसलमानोँ के लिए चिन्ता का विषय होना चाहिए कि तमाम दुनिया मेँ उन्हेँ क्योँ सन्देह की नज़रोँ से देखा जाता है ? कुछ मुट्ठी भर लोगोँ की करतूतोँ के कारण समूची मुसलमान कौम इसलिए बदनाम हो रही है क्योँकि उनकी इन करतूतोँ के ख़िलाफ मुसलमान प्राय: खुलकर अपना विरोध व्यक्त नहीँ करते । शादी, तलाक़ और वन्दे मातरम जैसे मामलोँ मेँ फ़तवा जारी करने वाले मुल्ला , मौलवी और इस्लाम की दीनी संस्थाएँ आतंकवादियोँ के ख़िलाफ फ़तवा जारी कर उन्हेँ और उनकी करतूतोँ को ग़ैर इस्लामी घोषित क्योँ नहीँ करते ? राष्ट्र की सुरक्षा के प्रति सजग अमेरिका की प्रशंसा करने के स्थान पर पूछताछ की सामान्य प्रक्रिया को नमक मिर्च लगाकर शाहरुख खान के अपमान के रूप मेँ इस तरह परोसा जा रहा है मानो यह इस देश का अपमान हो । होना तो यह चाहिए कि अमेरिका से सबक लेकर हमेँ भी अपने राष्ट्र की सुरक्षा के लिए ऐसे ही उपाय अपनाएँ । मगर भारत के मीडिया के लिए इससे बड़ी ख़बर शायद कोई थी ही नहीँ । उसके लिए महँगाई ,भ्रष्टाचार और स्वाइन फ़्लू से मरती जनता की बढ़ती मुसीबतेँ जैसे कुछ भी नहीँ । धिक्कार है ऐसे बिके हुए , स्वाभिमानशून्य और चाटुकार मीडिया को ।

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

अधूरी आज़ादी

हम आज अधूरी आज़ादी की वर्षगाँठ मना रहे हैँ । लाहौर मेँ रावी के तट पर लिए गए संकल्प को तत्कालीन सत्तालोलुप नेतृत्व ने भुला दिया । अफ़सोस तो इस बात का है कि हमारा ढुलमुल,कमजोर,रीढ़विहीन और आत्मविस्मृत नेतृत्व इस अधूरी आज़ादी को भी सँभालकर नहीँ रख सका । कश्मीर का एक बड़ा भाग पाकिस्तान ने तुरन्त ही हमसे हड़प लिया । नेहरू ने कश्मीर मसले को यू एन ओ मेँ ले जाकर इसे आने वाली पीढ़ी के लिए अन्तहीन सिरदर्द बना डाला । हम खामोश रहे । चीन ने बलपूर्वक हजारोँ वर्गमील भूमि पर कब्जा कर लिया । हम चुप रहे । कच्छ का रन पाकिस्तान को , कच्चातिवु द्वीप श्रीलंका को और तीन बीघा गलियारा बँगला देश को तश्तरी मेँ रखकर भेँट कर दिया । हम देखते रहे । अभी क्या है ! पूर्वोत्तर संकट मेँ है । सीमाएँ असुरक्षित हैँ । घुसपैठ जारी है । आस्तीन के साँप सक्रिय हैँ । हम कुंभकर्णी नीँद मेँ हैँ । आतंकी निर्भीक घूम रहे हैँ । आम जनता मँहगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त है । धन्य है इस देश की जनता जो फिर भी सुनहरे भविष्य के प्रति आशान्वित है । लेकिन क्या निराश हुआ जाए ? नहीँ ! निराश होने की जरूरत नहीँ है । बस INDIA को भारत बनाने का प्रयास करेँ । जिस दिन हम भारत बना लेँगे सारी समस्याएँ अपने आप हल हो जाएँगी । भारतमाता की जय ।

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

नाग काले

जिन घरोँ मेँ घूमते हैँ नाग काले ।
लोग अब कहने लगे उनको शिवाले ।
कोई कहता ज़िन्दगी मिल जाए मुझको ,
कोई कहता या ख़ुदा मुझको उठा ले ।
भूख की पीड़ा जरा उनसे तो पूछो ,
छिन गए हैँ हाथ से जिनके निवाले ।
इन अँधेरोँ से भला अब ख़ौफ़ कैसा ?
आपने खुद ही मिटाए हैँ उजाले ।
जिक्र मेरा भी हुआ है जब कभी भी ,
शोषितोँ के आपने चर्चे निकाले ।
क्या कभी पिघले हैँ पत्थरदिल सियासी ,
तू भले ही उम्र भर आँसू बहा ले ।
दर बदर भटके फिरे हैँ साथ लेकर ,
ये दिलोँ के दाग़ और पैरोँ के छाले ।

बुधवार, 12 अगस्त 2009

नीँव के पत्थर

नीँव के पत्थर बहुत गहरे मेँ दफ़नाए गए ।
ख़ूबसूरत संगे मरमर सामने पाए गए ।
आदमी के खून से थे हाथ जिनके तरबतर ,
बाद मे वे लोग भी निर्दोष ठहराए गए ।
शान्ति के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर जब हो चुके ,
इस खुशी मेँ कुछ कबूतर भूनकर खाए गए ।
जिन वफ़ादारोँ के बलबूते पे हम आगे बढ़े ,
चन्द टुकड़े डालकर वे लोग बहकाए गए ।
एक जयचंद जा मिला ग़ोरी मुहम्मद से गले ,
आज फिर इतिहास के सोपान दोहराए गए ।
ये सियासत , ये हुकूमत और ये जम्हूरियत ,
आड़ मेँ इनकी हमेशा जुल्म बरसाए गए ।
एक प्यारा गाँव जलकर राख की ढेरी हुआ ,
तब शहर से अग्निशामक यंत्र भिजवाए गए ।

ये शहर जंगल हुआ

आम जनता मेँ ये कौतूहल हुआ ।
आज भी होगा वही जो कल हुआ ।
एक ऐसी चीज़ है इस देश मेँ ,
मिल गई जिसको वही पागल हुआ ।
पाकर सूरज की तपन पोखर का पानी ,
आसमाँ छूने लगा , बादल हुआ ।
किस तरह से दर्द को हम कम करेँ ,
किरकिरी जब आँख का काजल हुआ ।
काम पशुओँ के किए हैँ आदमी ने ,
लग रहा है ये शहर जंगल हुआ ।

रविवार, 2 अगस्त 2009

सड़क पर हैँ

धुंध औ कुहरे सड़क पर हैँ ।
कष्ट यूँ दुहरे सड़क पर हैँ ।
बोलने सुनने की आज़ादी नहीँ ,
गूँगे औ बहरे सड़क पर हैँ ।
ख़ूबसूरत से मुखौटोँ मेँ छुपे ,
बदनुमा चेहरे सड़क पर हैँ ।
पूछते हैँ पाँव नंगे आपसे ,
घाव क्योँ गहरे सड़क पर हैँ ।
बाहुबलियोँ की हिफ़ाजत के लिए ,
पुलिस के पहरे सड़क पर हैँ ।
अपनी मज़िल तक पहुँचना है कठिन ,
काफ़िले ठहरे सड़क पर हैँ ।
तंगदस्ती इस तरफ औ उस तरफ ,
आपके नखरे सड़क पर हैँ ।

शनिवार, 1 अगस्त 2009

कौन करे ?

जालिमोँ का शिकार कौन करे ?
सबसे पहला प्रहार कौन करे ?
वक्त की चाल बड़ी धीमी है ,
वक्त का इन्तज़ार कौन करे ?
सुन सकेँ रहनुमा हमारे भी ,
इतनी ऊँची पुकार कौन करे ?
आज तूफान का अँदेशा है ,
आज दरिया को पार कौन करे ?
आप मेँ कौन बड़ी खूबी है ,
आप पर जाँ निसार कौन करे ?
हम हैँ कीड़े मकोड़े फिर हमको ,
आदमी मेँ शुमार कौन करे ?
बात करने की उन्हेँ आदत है ,
उनसे बातेँ हजार कौन करे ?