सोमवार, 14 दिसंबर 2009

राज्योँ का पुनर्गठन

विकास और प्रशासनिक दृष्टि से छोटे राज्योँ की परिकल्पना को गलत नहीँ कहा जा सकता लेकिन इसके लिए जरूरत है ईमानदार प्रयत्नोँ की जिनका हमारे देश मेँ नि:तान्त अभाव है । वर्तमान मेँ उठाई जा रही कुछ छोटे राज्योँ की माँग के पीछे विकास की भावना कम और राजनीतिक स्वार्थ अधिक है । राष्ट्रीय अखण्डता की दृष्टि से यदि देखा जाए तो भाषावार प्रान्तोँ की रचना उचित नहीँ है । प्रशासनिक सुविधा के लिए पूरे देश को भौगोलिक आधार पर छोटी - छोटी इकाईयोँ मेँ बाँटा जाना अधिक उपयुक्त और लाभकारी सिद्ध हो सकता था लेकिन तत्कालीन नेतृत्व की अदूरदर्शिता , राष्ट्रीय सोच का अभाव और स्वार्थपूर्ति के चलते यह संभव नहीँ हो सका और परिणामस्वरूप नये राज्योँ की माँग का एक अन्तहीन सिलसिला उसी समय से शुरू हो गया । राज्योँ के रूप मेँ ये छोटी इकाईयाँ भारत जैसे गरीब और विकासशील देश के लिए सफेद हाथी ही सिद्ध होँगे विकास तो दूर की बात है । और अन्तत: इनका आर्थिक बोझ महँगाई और भ्रष्टाचार के बोझ तले दब रही असहाय जनता पर ही पड़ेगा । तेलंगाना अब काँग्रेस और सरकार दोनोँ के लिए गले की हड्डी बन गया है । सबको सन्मति दे भगवान ।
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

सोमवार, 30 नवंबर 2009

चीन को सबक सिखाओ

हम यह किस तरह यकीन करेँ कि भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राष्ट्र है ? आए दिन चीन हमारे आन्तरिक मामलोँ मेँ हस्तक्षेप करता रहता है और हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत मेँ अपनी गर्दन गड़ाकर चुपचाप मामले के ठण्डा होने की राह देखते रहते हैँ । आज तो चीन के सैनिकोँ ने उस समय हद कर दी जब लद्दाख मेँ नरेगा के तहत चल रहे कार्य को उन्होँने बलात रुकवा दिया । और आश्चर्य है कि हमने भी चुपचाप काम को रुक जाने दिया । कोई विरोध नहीँ । इसके पहले भी लद्दाख की सीमा का हवाई और जमीनी अतिक्रमण हम चुपचाप सह गए । अरुणाचल प्रदेश पर उसके बेजा दावे को हम बातचीत के जरिए सुलझाने की बात करते हैँ । यह तो प्रकारान्तर से चीन के दावे को स्वीकार करने जैसा है । प्रधान मंत्री मनमोहनसिँह और दलाई लामा की अरुणाचल प्रदेश यात्रा पर चीन की आपत्ति का लिजलिजी भाषा मेँ विरोध करके हमारी सरकार ने अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली । लातोँ के भूत बातोँ से मानने वाले नहीँ हैँ । पर हमेँ लात मारना आता कहाँ है ? अन्तर्राष्ट्रीय और विवादित मामलोँ पर हमारे नेताओँ की भाषा से कभी भी यह आभास नहीँ होता कि हम एक परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र हैँ । जवाहरलाल नेहरु ने अपनी अन्तर्राष्ट्रीय छवि बनाने के लिए चीन की समूहवादी सरकार को सबसे पहले मान्यता देकर पहली और बहुत बड़ी भूल की थी । पञ्चशील समझौता दूसरी बड़ी भूल थी । हिन्दी चीनी , भाई - भाई का थोथा नारा लगाकर हमारी पीठ मेँ छुरा भोँकने वाले चीन की नीयत को यदि हम अब भी नहीँ समझ पाए तो यह खतरा आगे और भी खतरनाक सूरत अख्तियार करने वाला है । हमने तिब्बत को चीन का हिस्सा स्वीकार करके तीसरी बड़ी भूल की । कैलाश मानसरोवर पर उसके जबरन कब्जे पर भी हम खामोश हैँ । हमारे स्वाभिमानशून्य नेतृत्व के चलते हमने केवल खोया ही है , पाया कुछ भी नहीँ । अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार मेँ रक्षा मंत्री रहे जार्ज फर्नाण्डीस ने एक बार बहुत जिम्मेदारी भरा बयान लोकसभा मेँ देते हुए कहा था कि हमारा सबसे बड़ा शत्रु चीन है । तब निर्लज्ज वामपंथियोँ ने बड़ी हाय तौबा मचाई थी लेकिन जार्ज की सोच कितनी सही थी यह आज सिद्ध हो रहा है । हमारी क्लैव सरकार से भला हम क्या उम्मीद रखेँ जिसमेँ न तो इच्छाशक्ति दिखाई देती है और न ही क्षमता ।
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

चीन को सबक सिखाओ

हम यह किस तरह यकीन करेँ कि भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राष्ट्र है ? आए दिन चीन हमारे आन्तरिक मामलोँ मेँ हस्तक्षेप करता रहता है और हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत मेँ अपनी गर्दन गड़ाकर चुपचाप मामले के ठण्डा होने की राह देखते रहते हैँ । आज तो चीन के सैनिकोँ ने उस समय हद कर दी जब लद्दाख मेँ नरेगा के तहत चल रहे कार्य को उन्होँने बलात रुकवा दिया । और आश्चर्य है कि हमने भी चुपचाप काम को रुक जाने दिया । कोई विरोध नहीँ । इसके पहले भी लद्दाख की सीमा का हवाई और जमीनी अतिक्रमण हम चुपचाप सह गए । अरुणाचल प्रदेश पर उसके बेजा दावे को हम बातचीत के जरिए सुलझाने की बात करते हैँ । यह तो प्रकारान्तर से चीन के दावे को स्वीकार करने जैसा है । प्रधान मंत्री मनमोहनसिँह और दलाई लामा की अरुणाचल प्रदेश यात्रा पर चीन की आपत्ति का लिजलिजी भाषा मेँ विरोध करके हमारी सरकार ने अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली । लातोँ के भूत बातोँ से मानने वाले नहीँ हैँ । पर हमेँ लात मारना आता कहाँ है ? अन्तर्राष्ट्रीय और विवादित मामलोँ पर हमारे नेताओँ की भाषा से कभी भी यह आभास नहीँ होता कि हम एक परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र हैँ । जवाहरलाल नेहरु ने अपनी अन्तर्राष्ट्रीय छवि बनाने के लिए चीन की समूहवादी सरकार को सबसे पहले मान्यता देकर पहली और बहुत बड़ी भूल की थी । पञ्चशील समझौता दूसरी बड़ी भूल थी । हिन्दी चीनी , भाई - भाई का थोथा नारा लगाकर हमारी पीठ मेँ छुरा भोँकने वाले चीन की नीयत को यदि हम अब भी नहीँ समझ पाए तो यह खतरा आगे और भी खतरनाक सूरत अख्तियार करने वाला है । हमने तिब्बत को चीन का हिस्सा स्वीकार करके तीसरी बड़ी भूल की । कैलाश मानसरोवर पर उसके जबरन कब्जे पर भी हम खामोश हैँ । हमारे स्वाभिमानशून्य नेतृत्व के चलते हमने केवल खोया ही है , पाया कुछ भी नहीँ । अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार मेँ रक्षा मंत्री रहे जार्ज फर्नाण्डीस ने एक बार बहुत जिम्मेदारी भरा बयान लोकसभा मेँ देते हुए कहा था कि हमारा सबसे बड़ा शत्रु चीन है । तब निर्लज्ज वामपंथियोँ ने बड़ी हाय तौबा मचाई थी लेकिन जार्ज की सोच कितनी सही थी यह आज सिद्ध हो रहा है । हमारी क्लैव सरकार से भला हम क्या उम्मीद रखेँ जिसमेँ न तो इच्छाशक्ति दिखाई देती है और न ही क्षमता ।
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

क्या खोया पाया

बड़े ही प्यार से हमने सभी को समझाया ।
अमन का फ़लसफ़ा लेकिन उन्हेँ नहीँ भाया ।
ये सियासत है एक कोठरी काजल वाली ,
कौन बेदाग़ निकलकर भला बाहर आया ।
जमीन बेचकर खाई हैँ रोटियाँ हमने ,
ज़मीर बेचकर हलवा कभी नहीँ खाया ।
कोई सूरज , सुना है रोशनी लुटाता है ,
हमारी तीरग़ी मेँ आज तक नहीँ आया ।
मैँ तो आकाश मेँ उड़ता हुआ परिन्दा हूँ ,
क़फ़स हाथोँ मेँ लिए कौन मेरे घर आया ।
शाम ढलने को है आओ ज़रा हिसाब करेँ ,
क्या किया , क्या न किया और क्या खोया - पाया ।

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

होता है

रस्ते मेँ पत्थर होता है ।
पाँव खून से तर होता है ।
आला अफ़सर घर होते हैँ ,
घर मेँ ही दफ़्तर होता है ।
चोर भले ही कोई भी हो ,
शक़ तो नौकर पर होता है ।
जिसे समझते घटिया वो ही,
अच्छोँ से बेहतर होता है ।
दान , धर्म मेँ सबसे आगे ,
डाकू या तस्कर होता है ।
रबड़ी और दूध से ज़्यादा ,
कुर्सी मेँ पावर होता है ।
घर मेँ नहीँ सुरक्षित हैँ हम ,
बाहर भी तो डर होता है ।

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

ज़माने लगेँगे

वतन की जो हालत
बताने लगेँगे ।
तो पत्थर भी आँसू
बहाने लगेँगे ।
कहीँ भीड़ मेँ
खो गई आदमीयत ,
उसे ढूँढने मेँ
ज़माने लगेँगे ।
अंधोँ के कंधोँ पे
बैठेँगे लँगड़े ,
किसी दिन तो चलकर
ठिकाने लगेँगे ।
अग़र हमने पहचानी
वोटोँ की क़ीमत ,
सभी अपने वादे
निभाने लगेँगे ।
ग़ज़ल मेँ अग़र जान
डाली है तूने ,
सभी लोग फिर
गुनगुनाने लगेँगे ।
[ यह ग़ज़ल मैँने कोई 30 साल पहले कही थी तब मैँ ग्वालियर मेँ था । कुछ गोष्ठियोँ मेँ मैँने इसे पढ़ा भी था । लगभग डेढ़ या दो वर्ष पहले दूरदर्शन पर एक गोष्ठी मेँ एक कवि ( नाम याद नहीँ आ रहा ) ने इस ग़ज़ल का मतला और पहला शेर बड़ी शान से सुना दिया । इस गोष्ठी का संचालन श्री सुरेश ' नीरव ' ( कादम्बिनी ) कर रहे थे । मैँ एक छोटे गाँव मेँ रहता हूँ और तब मेरे पास अपनी बात कहने के लिए यह साधन नहीँ था । मैँ अपनी रचना की चोरी का आरोप उन कवि महोदय पर लगाकर किसी विवाद को जन्म देना नहीँ चाहता पर अपनी बात कहने का मुझे पूरा हक़ है । उनका ईमान उन्हेँ मुबारक़ । हो सकता है कि यह महज़ एक इत्तिफ़ाक़ हो । उनके और मेरे भाव एवं शब्द मेल खा गए होँ । ख़ैर , बाक़ी सब मैँ आप जैसे सुधीजनोँ पर छोड़ता हूँ । मुझे उनसे कोई शिक़ायत नहीँ । ]

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

दीवाली होगी

मन के मरुथल मेँ
जिस दिन हरियाली होगी ।
उस दिन अपने घर मेँ भी दीवाली होगी ।
आशाओँ के दीपक जिस दिन जल जाएँगे ,
रात अमावस की फिर कैसे काली होगी ।

मौसम नहीँ रहा

ऐसा नहीँ कि ज़िन्दगी मेँ ग़म नहीँ रहा ।
दामन हमारा आँसुओँ से नम नहीँ रहा ।
हमने मुक़ाबला किया हँसते हुए सदा ,
वरना मुसीबतोँ का कहर कम नहीँ रहा ।
मिलने लगी है झूठ को इज्ज़त सभी जगह ,
सच बोलने का आजकल मौसम नहीँ रहा ।
मुँह मेँ जुबान है बहुत लम्बी तो क्या हुआ ,
इंसान की बातोँ मेँ कोई दम नहीँ रहा ।
ज़ख़्मोँ को दिल के दे सके राहत कभी - कभी ,
ऐसा किसी के पास भी मरहम नहीँ रहा ।
मैला अग़र अब हो गया गंगा का नीर तो ,
पहले की तरह आब - ए जमजम नहीँ रहा ।
कुछ हादसोँ मेँ लोग कई मर गए लेकिन ,
घर के पड़ोस मेँ कोई मातम नहीँ रहा ।

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

शुभ दीपावली

लोक - मंगल , चेतना ,
नव - जागरण ।
हो प्रकाशित विश्व का
अन्त:करण ।
माँगता हूँ मैँ
ज़माने के लिए ,
एक दीपक ,
एक उजली सी किरण ।
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

साम्राज्यवादी चीन

चीन दुनिया को दिखाने के लिए तो साम्यवादी है पर वास्तव मेँ वह घोर साम्राज्यवादी है । तिब्बत को हड़पने तथा भारत की हजारोँ वर्गमील भूमि पर कब्जा करने के बाद अब उसकी नीयत लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश को हथियाने की है । इसके लिए उसने पहले तो लद्दाख की हवाई और स्थल सीमाओँ का उल्लंघन कर घुसपैठ की तथा वहाँ पत्थरोँ पर जगह - जगह लाल रंग से चीन लिख दिया और बाद मेँ प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिँह की अरुणाचल प्रदेश यात्रा पर बेशर्मी से खुल्लमखुल्ला ऐतराज किया । और विदेशी मूल के इशारोँ पर कठपुतली बना हमारा स्वाभिमानशून्य , रीढ़विहीन नेतृत्व हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा । हमारे विदेश मंत्री एस.एम.कृष्णा ने बकरी की तरह मिमियाते हुए मरियल आवाज़ मेँ कड़ा विरोध व्यक्त करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली । पर सचमुच मेँ आम देशभक्त नागरिक का आहत मन इससे संतुष्ट नहीँ हुआ । वास्तव मेँ इस अवसर पर राष्ट्रीय स्वाभिमान और दृढ़ता का परिचय देते हुए सिँह गर्जना की आवश्यकता थी । भारत सरकार को चाहिए था कि वह ईँट का जवाब पत्थर से देते हुए अपनी हड़पी हुई जमीन को छुड़ाने के लिए आवश्यक कार्यवाही का बेखौफ़ ऐलान करती , चीन की नीयत को दुनिया के सामने उजागर करती , तिब्बत की आजादी के लिए विश्व समुदाय के सामने भारत का स्पष्ट पक्ष रखती , कैलाश मानसरोवर पर भारत के जन्मसिद्ध अधिकार का दावा करते हुए उनकी मुक्ति के लिए प्रयास शुरू करने की घोषणा करती और चीन की आपत्तियोँ को खारिज कर इसे भारत की एकता , अखण्डता और सम्प्रभुता पर प्रहार बताते हुए उसकी हरकतोँ को भड़काने वाली कार्यवाही कहती । मगर रमेश , तू ये अपेक्षाएँ आख़िर किससे कर रहा है ? वहाँ तेरी कौन सुनने वाला है ? किसी के कान पर जूँ रेँगने वाली नहीँ । क्योँ तू अपना समय बर्बाद कर रहा है । बन्द कर यह लिखना लिखाना । ...
लेकिन विचारोँ के बीज वातावरण मेँ बोए जाते हैँ और अनुकूल परिस्थियोँ मेँ वे पल्लवित और पुष्पित होकर मनोनुकूल फल प्रदान करते हैँ । इसलिए तू अपने अन्त:करण मेँ उठने वाले विचारोँ को वातावरण मेँ बोए जा बिना इस बात की परवाह किए कि उन विचारोँ को भला कौन पढ़ेगा ? बात आगे बढ़ाता हूँ । तब मैँ बच्चा था पर मुझे अच्छी तरह याद है । राष्ट्रीय स्वाभिमान से ओतप्रोत वातावरण हमारे संयुक्त परिवार की विशेषता थी । राष्ट्रीय मुद्दोँ पर चर्चाएँ हुआ करती थीँ । मैँ उन चर्चाओँ को रुचि लेकर बड़े ध्यान से सुना करता था । चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई भारत आए थे । पं. जवाहरलाल नेहरू ने उनके सम्मान मेँ एक स्वागत समारोह का आयोजन किया था । इस कार्यक्रम मेँ अर्धनग्न लड़कियोँ के द्वारा लगभग अश्लील कहा जा सकने योग्य एक बेहूदा नृत्य प्रस्तुत किया गया था । उस समय सिनेमा टॉकीज़ोँ मेँ फिल्म शुरू होने से पहले भारत सरकार के दृश्य एवं प्रचार निदेशालय द्वारा राष्ट्रीय महत्व के आयोजनोँ की न्यूज़ रील दिखाई जाती थी । टिमरनी की टॉकीज़ मेँ मैँने उक्त कार्यक्रम की न्यूज़ रील देखी है । इस भौँडे नृत्य को देखकर तब चाऊ एन लाई ने अवश्य ही यह सोचा होगा कि इस देश के राष्ट्रीय नेताओँ की रुचि राष्ट्र निर्माण की बजाए राग रंग मेँ है । शायद यही वजह थी कि चीनी - हिन्दी , भाई - भाई के नारे लगाने वाले चीन ने उसी भाई की पीठ मेँ छुरा घोँपते हुए उस पर एक अनावश्यक युद्ध थोपकर हजारोँ वर्गमील भूमि हथिया ली । आश्चर्य है कि परमाणु हथियारोँ से सम्पन्न देश को दबाने की कोशिशेँ आखिर कोई देश कैसे कर सकता है ? क्या हमारी अग्नि और पृथ्वी मिसाइलेँ केवल शोभा की सुपारी हैँ ? यदि इन सबका उपयोग हमारे राष्ट्र की एकता , अखण्डता और सम्प्रभुता की रक्षा करने के लिए नहीँ हुआ तो फिर इनके होने का आखिर क्या अर्थ है ? क्योँ नहीँ कोई देश हमारे इन अत्याधुनिक हथियारोँ से खौफ़ खाता ? क्या ये केवल अजायबघर की वस्तुएँ बनकर रह जाएँगी ? क्या इनका उपयोग केवल 26 जनवरी की परेड मेँ प्रदर्शन तक ही सीमित रह जाएगा ? शायद ये सब सच नहीँ हैँ । हमारे हथियार तो हर प्रकार से सक्षम हैँ परन्तु कमजोरी हमारे अक्षम नेतृत्व की है । उसमे दृढ़ इच्छाशक्ति का नि:तान्त अभाव है । हमारी विदेश नीति ढुलमुल और अस्पष्ट है । अब समय आ गया है जब कि हमेँ अपनी विदेश नीति मेँ राष्ट्रीय स्वाभिमान , सुरक्षा , सम्प्रभुता और अखण्डता को सर्वोच्च प्राथमिकता देना चाहिए । जबसे नेपाल मेँ राजनीतिक हालात बदले हैँ वहाँ भारत विरोधी गतिविधियोँ मेँ तेजी आ गई है । नेपाल के रास्ते नकली नोट भारत मेँ अर्थ व्यवस्था को छलनी कर रहे हैँ और सरकार आश्चर्यजनक चुप्पी के साथ हाथ पर हाथ धरे बैठी है । अब उसी नेपाल के चीन समर्थक प्रधान मंत्री माधव कुमार नेपाल ने चीन से आग्रह किया है कि वह तिब्बत की राजधानी ल्हासा से काठमाण्डू तक रेल मार्ग का निर्माण करे । वास्तव मेँ यह रेलमार्ग भविष्य मेँ भारत के लि खतरा बन सकता है इसलिए नेपाल के इस प्रस्ताव का पुरजोर विरोध होना चाहिए । दरअसल भारत चारोँ ओर से विरोधियोँ और दुश्मनोँ से घिर चुका है अत: हमेँ अपनी सुरक्षा को ध्यान मेँ रखते हुए अपनी कूटनीति मेँ आवश्यक बदलाव करना होगा । अपने परमाणु हथियारोँ और मिसाइलोँ का कूटनीतिक उपयोग करके पड़ोसी देशोँ पर अपनी धाक कायम करनी होगी , मिमियाने के स्थान पर अपनी भाषा मेँ परमाणु शक्ति सम्पन्नता का आभास कराना होगा तभी हम शान्ति से रह पाएँगे । ॥ भारत माता की जय ॥

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

नोबल पुरुस्कार

मेरी दृष्टि से वेँकटरामन चन्द्रशेखर को नोबल पुरुस्कार मिलना हम भारतीयोँ के लिए गर्व करने की बात कतई नहीँ लगती । क्या हम केवल इसलिए गर्व करेँ क्योँकि वह भारतीय मूल के हैँ ? यह बात गले नहीँ उतरती । दरअसल हमारे लिए तो यह शर्म की बात होनी चाहिए कि एक योग्य प्रतिभा को हम अपने देश मेँ रोक नहीँ सके । उन्हेँ देश मेँ ही अनुसंधान की आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध नहीँ करा सके । और जब अमेरिका जाकर उन्होँने अपनी प्रतिभा के झण्डे गाड़े तो हम अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनकर गर्व कर रहे हैँ । इसके पूर्व भी जिन भारतीय मूल के वैज्ञानिकोँ को नोबल पुरुस्कार मिला था उनके साथ भी यही परिस्थिति थी । दूसरी ओर अपनी मातृभूमि को छोड़कर अन्य देशोँ मेँ जाकर बसने और उन देशोँ के लिए उत्कृष्ट कार्य करने वाले निन्दा और धिक्कार के अधिकारी होकर कृतघ्न लोगोँ की श्रेणी मेँ ही रखे जाएँगे । वाल्मीकि रामायण मेँ भगवान राम ने लक्ष्मण से कहा था - " अपि स्वर्णमयी लंका , न मे लक्ष्मण रोचते । जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी । अस्तु ।

नोबल पुरुस्कार

मेरी दृष्टि से वेँकटरामन चन्द्रशेखर को नोबल पुरुस्कार मिलना हम भारतीयोँ के लिए गर्व करने की बात कतई नहीँ लगती । क्या हम केवल इसलिए गर्व करेँ क्योँकि वह भारतीय मूल के हैँ ? यह बात गले नहीँ उतरती । दरअसल हमारे लिए तो यह शर्म की बात होनी चाहिए कि एक योग्य प्रतिभा को हम अपने देश मेँ रोक नहीँ सके । उन्हेँ देश मेँ ही अनुसंधान की आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध नहीँ करा सके । और जब अमेरिका जाकर उन्होँने अपनी प्रतिभा के झण्डे गाड़े तो हम अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनकर गर्व कर रहे हैँ । इसके पूर्व भी जिन भारतीय मूल के वैज्ञानिकोँ को नोबल पुरुस्कार मिला था उनके साथ भी यही परिस्थिति थी । दूसरी ओर अपनी मातृभूमि को छोड़कर अन्य देशोँ मेँ जाकर बसने और उन देशोँ के लिए उत्कृष्ट कार्य करने वाले निन्दा और धिक्कार के अधिकारी होकर कृतघ्न लोगोँ की श्रेणी मेँ ही रखे जाएँगे । वाल्मीकि रामायण मेँ भगवान राम ने लक्ष्मण से कहा था - " अपि स्वर्णमयी लंका , न मे लक्ष्मण रोचते । जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी । अस्तु ।

शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

चाँदनी

पिछले कुछ दिनोँ से पीलिया रोग से पीड़ित हूँ । न जाने मैँने ऐसा क्या पी लिया था । ख़ैर... आज शरद पूर्णिमा है , लिहाज़ा कुछ तो कहना ही पड़ेगा ।
' चाँदनी '
है अँधेरोँ से बँधी तक़दीर जिनकी ।
चाँदनी उनके लिए
है चार दिन की ।
आज सिर्फ़ ग़ज़ल का मतला ही प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
इस मतले के रदीफ़ और क़ाफ़िए पर यदि आपका मन मचले तो आप भी ग़िरह लगाकर कुछ शेर अवश्य कहियेगा । सचमुच मुझे बहुत खुशी होगी आपके शेर पढ़कर । इरशाद ...

सोमवार, 28 सितंबर 2009

साँकल रहे हैँ

नाग अस्तीनोँ के अन्दर पल रहे हैँ ।
मूँग छाती पर हमारी दल रहे हैँ ।
अब उन्हीँ लोगोँ से है ख़तरा हमेँ तो ,
जो हमारे द्वार की साँकल रहे हैँ ।
प्राणवायु बाँटते थे दूसरोँ को
हम कभी इस गाँव के पीपल रहे हैँ ।
हर क़दम की ताल को पहचानते हैँ ,
वो तुम्हारे पाँव की पायल रहे हैँ ।
गोद मेँ सूरज छिपाकर भी जो बरसेँ ,
इस तरह के लोग ही बादल रहे हैँ ।
भीड़ का हिस्सा नहीँ अगुआ बने हैँ ,
थे अकेले ही अकेले चल रहे हैँ ।
सूर्य बनकर उम्र भर बाँटा उजाला ,
डूबने का वक्त है तो ढल रहे हैँ ।

शनिवार, 26 सितंबर 2009

वय: सन्धि के बन्धन

लगे टूटने धीरे - धीरे वय: सन्धि के बन्धन ॥
मुखर हो उठे मन के सारे दबे हुए संवेदन ॥
आँखेँ बुनने लगीँ आजकल सपने रंग रँगीले ।
और हृदय वीणा के तन्तु होने लगे हठीले ।
धड़कन - धड़कन पूछ रही है कैसे करूँ निवेदन ॥
देती है जब मन्द झकोरे शीतल सी पुरवाई ।
अलसाई कलियाँ लेती हैँ धीरे से अँगड़ाई ।
टहनी - टहनी मचल रही है करने को आलिँगन ॥
सोती हुई झील के अन्तर मेँ जागा कौतूहल ।
नन्ही सी कंकरिया कर गई कितनी गहरी हलचल ।
डूब गईँ शर्मीली लहरेँ ले कूलोँ का चुम्बन ॥
बार - बार नयनोँ के आगे आए चाँद सलोना ।
मीठा सा उलाहना देकर रूठे कोई खिलौना ।
थोड़ी सी मनुहार और फिर सौ - सौ बार समर्पण ॥

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

मन की गाँठेँ खोलेँ

पर उपदेश कुशल बहुतेरे अपना हृदय टटोलेँ ॥
औरोँ के अवगुण देखेँ , पर अपनी चादर धो लेँ ॥
कवि तो एक मनीषी होता , शब्द , अर्थ का ज्ञाता ,
स्वयं प्रेरणा बनकर वह दुनिया को राह दिखाता ।
हम कवि हैँ , यह याद रखेँ और सोच समझकर बोलेँ ॥ हल्की बातेँ ही कविता का विषय बनेँ , अनुचित है ।
शाश्वत रचनाएँ लिखना ही कवि के लिए उचित है ।
विस्तृत गगन कल्पना का है, दूर - दूर तक डोलेँ ॥
अपनी लघुता को स्वीकारेँ , यह साहस दिखलाएँ ।
अहं भाव को तजकर ही , कुछ सीखेँ या सिखलाएँ ।
निज कमियोँ को कभी दूसरोँ के ऊपर न ढोलेँ ॥
जग जाहिर है , ढोल दूर के होते बड़े सुहाने ।
पास अगर आ जाएँ तो लगता है मारेँ ताने ।
साहित्यिक रस की धारा मेँ कटुता का विष घोलेँ ॥
स्वार्थ लिप्त व्यवहार नेह की नौका सदा डुबोते ।
श्रद्धा , त्याग , समर्पण ही पर्याय प्रेम के होते ।
या तो उनको मीत बना लेँ , या फिर उनके हो लेँ ॥
कवि होना है कृपा राम की , यह अनुभूति हमारी ।
बनते नहीँ , सदा पैदा होते हैँ क़लम पुजारी ।
बरसे बारह मास यहाँ रस , तन - मन सहज भिँगो लेँ ॥
सच्ची कविता निसृत होगी उस दिन अन्तर्मन से ।
पर दु:ख कातर होकर जिस दिन आँसू बहेँ नयन से ।
उन्हीँ आँसुओँ की स्याही मेँ अपनी क़लम डुबो लेँ ॥
प्रेम पगा धागा टूटे तो जुड़ना ही मुश्किल है ।
अरे खिलौना मिट्टी का है , दिल तो आख़िर दिल है ।
करना कठिन , सरल है कहना-मन की गाँठेँ खोलेँ ॥

सोमवार, 21 सितंबर 2009

किधर जाएँगे

दिन ग़रीबी के सही हँस के गुज़र जाएँगे ।
ख़्वाब महलोँ के देखेँगे तो मर जाएँगे ।
पाँव तहज़ीब से रखना मेरे बगीचे मेँ ,
फूल नाज़ुक हैँ , तेरे डर से बिखर जाएँगे ।
हर क़दम पे हमेँ धोखा ही मिला है उनसे ,
फिर भी उम्मीद है हमको कि सुधर जाएँगे ।
निकल पड़े हैँ कड़ी धूप मेँ साया पाने ,
छाँव मिल जाएगी हमको तो ठहर जाएँगे ।
अभी निग़ाह मेँ सबकी ज़नाब ऊपर हैँ ,
मैँ हक़ीक़त जो बता दूँ तो उतर जाएँगे ।
तू लक़ीरेँ तेरे हाथोँ की नजूमी को दिखा ,
पूछ ले कब तलक़ दिन अपने सँवर जाएँगे । आपके आसपास हम तो रहेँगे हरदम ,
आपसे दूर भला और किधर जाएँगे ।
आपसे

शनिवार, 19 सितंबर 2009

विचारोँ मेँ

कुछ बातेँ ऐसी होती हैँ जो की जाएँ इशारोँ मेँ ।
यह ख़ूबी पाई जाती है बस कुछ ही फ़नकारोँ मेँ ।
क़ागज और क़लम से अपना रिश्ता कुछ - कुछ ऐसा है ,
जैसा रिश्ता है सदियोँ से डोली और कहारोँ मेँ ।
आँखेँ शर्मशार हैँ अपनी , लज्जा से सिर झुका हुआ ,
जब से देखा है गीतोँ को बिकते हुए बजारोँ मेँ ।
पीछे से कुछ ख़ास आदमी अपना हिस्सा ले भागे ,
लोग लगे हैँ उम्मीदोँ की कितनी बड़ी क़तारोँ मेँ ।
सबसे पहले इस दुनिया को कौन मिटाएगा देखेँ ,
होड़ लगी है आसपास के परमाणु हथियारोँ मेँ ।
जिनको नहीँ भरोसा अपनी मेहनत , अपने बाज़ू पर ,
गिनती होती है उन सबकी मजबूरोँ , लाचारोँ मेँ ।
साथ अग़र मिल जाए तुम्हारा फिर क्या फ़िक्र ज़माने की ,
ख़ूब लगेगा फिर मेरा दिल उजड़े हुए दयारोँ मेँ ।
शायद पूरब के खेतोँ मेँ बरसा है पहला पानी ,
मिट्टी की सोँधी सी ख़ुशबू आने लगी बयारोँ मेँ ।
हर पत्थरदिल को पिघला दे ऐसी ताक़त होती है ,
सावन की ठण्डी - ठण्डी सी मस्ती भरी फुहारोँ मेँ ।
मेँढक बनकर किसी कुएँ मेँ कब तक गोता खाओगे ?
कुछ तो परिवर्तन ले आओ दक़ियानूस विचारोँ मेँ ।

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

होँगे

ख़ूने दिल से जो मेरे आपने बाले होँगे ।
उन चिराग़ोँ से नशेमन मेँ उजाले होँगे ।
दिल मेँ तूफान मग़र होँटोँ पे जुंबिश न हुई ,
हमने कैसे यहाँ अरमान निकाले होँगे ।
तेरे दीदार की हसरत मेँ तो ये भी होगा ,
एक दिन हम किसी क़ातिल के हवाले होँगे ।
यक़ीन कर तो लिया था मग़र न ये जाना ,
उजले कपड़ोँ मेँ छुपे दिल बड़े काले होँगे ।
मंज़िलेँ जब मेरी आँखोँ के सामने होँगी ,
राह पुरख़ार , मेरे पाँव मेँ छाले होँगे ।
जब भी आएगी क़यामत की घड़ी दुनिया मेँ ,
ज़िन्दग़ी हम भी तेरे चाहने वाले होँगे ।
दास्ताँ अपनी सुनाऊँ तो मेरा दावा है ,
छलके - छलके तेरी आँखोँ के पियाले होँगे ।
तूने ख़त और क़िताबत के लिए ही शायद ,
ये कबूतर बड़े अरमान से पाले होँगे ।

सोमवार, 14 सितंबर 2009

हो जाएगा

दर्द जिस दिन ज़िन्दगी का आसरा हो जाएगा ।
आदमी उस दिन न जाने क्या से क्या हो जाएगा ।
दर्द का हद से गुज़रना , कह गए ग़ालिब 'दवा' ,
दर्द कब गुज़रेगा हद से ? कब दवा हो जाएगा ।
कौन से धोखे मेँ बैठे हैँ हमारे रहनुमा ,
जाग जाएँ वरना कुछ अच्छा बुरा हो जाएगा ।
आग और बारूद मेँ है बस जरा सा फ़ासला ,
मेल होते ही हिरन सारा नशा हो जाएगा ।
आदमी की भूख वादोँ से नहीँ मिट पाएगी ,
ग़र निभाए तो ग़रीबोँ का भला हो जाएगा ।
एक ठोकर की ज़रूरत है ज़माने के लिए ,
देख लेना तू ज़माने का ख़ुदा हो जाएगा ।

शनिवार, 12 सितंबर 2009

आएँगे मेहमान

नयनोँ मेँ सपने तिर आए ,
अधरोँ पर आई मुस्कान ॥
कली - कली खिल उठी हृदय की ,
और उमंगेँ हुईँ जवान ॥
ख़ुशबू सी घुल गई हवा मेँ ,
मादक मौसम आया ।
दूर कहीँ गूँजी शहनाई ,
अंग - अंग बौराया ।
ख़ुशियाँ लिपट गईँ आँचल से ,
साँसोँ मेँ उमड़ा तूफान ॥
मन की सोन चिरैया उड़कर ,
बादल को छू आई ।
शरमा कर गौरैया देखे ,
पानी मेँ परछाई ।
सुध - बुध भूल गई दीवानी ,
प्रीत चढ़ी परवान ॥
प्यास निगोड़ी घिर - घिर आए ,
विकल पपीहा तरसे ।
चोँच उठाकर तके गगन को ,
शायद स्वाती बरसे ।
पल - पल हँसे ,
रोए पल - पल मेँ ,
हो जाए हैरान ॥
दरवाजे पर दस्तक देकर ,
पुरवैया उड़ जाए ।
आँगन मेँ तुलसी का बिरवा ,
गीत ख़ुशी के गाए ।
फिर मुँडेर पर कागा बोले ,
आएँगे मेहमान ॥

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

नवगीत

कल सचमुच यदि तुम आ जाते ॥
जी भरकर हँसते बतियाते ॥
भूल कुटिलतम आघातोँ को ।
जीवन के झंझावातोँ को । सुख से जो हम दोनोँ करते ,
सुनकर प्रेम पगी बातोँ को ।
प्रकृति विहँसती और गगन के ,
चमकीले तारे मुस्काते ॥
महुआ औ टेसू फूले थे ।
मस्ती मेँ सुध - बुध भूले थे ।
सपनोँ मेँ गलबहियाँ देकर ,
हम झूले थे ,
तुम झूले थे ।
करने को अभिसार ,
रूठते यदि हमसे
तो तुम्हेँ मनाते ॥
बचकर गर्मी की दुपहर से ।
गुपचुप - गुपचुप
इधर - उधर से ।
आँख बचाकर दुनिया भर की ,
ले जाते फिर तुम्हेँ नगर से ।
दूर गाँव की अमराई मेँ ,
बैठ प्रीत का पाठ पढ़ाते ॥

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

कहाँ है ?

हो गई गुम रोशनी आख़िर कहाँ है ?
तीरग़ी की ओर बढ़ता कारवाँ है ।
देखिए ग़ुलशन उजाड़ा जा रहा है ,
चैन से सोया हुआ क्योँ बागवाँ है ?
ताज़ की तामीर कैसे हो सकेगी ?
अब नहीँ मुमताज़ औ न शा'जहाँ है ।
दर्द , आँसू , आह , ग़म , ग़ुरबत कभी ,
मुफ़लिसी की एक लम्बी दास्ताँ है ।
किस तरह हमको निकालोगे वहाँ से ,
आपके दिल मेँ हमारा भी मकाँ है ।
आप - हम जैसे कई आए गए हैँ ,
याद रखना ये किराये का मकाँ है ।
उम्र बेशक़ हो गई होगी ज़ियादा ,
दर असल दिल आज भी लगता जवाँ है ।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

चुरा लिया

पानी , हवा , जमीन और बादल चुरा लिया ।
इंसान की वहशत ने ये जंगल चुरा लिया ।
चौपाल सूनी हो गईँ , अमराइयाँ उदास ,
किसने हमारे गाँव का पीपल चुरा लिया ।
परफ्यूम का चलन बढ़ा इत्रोँ के दिन लदे ,
महके हुए कन्नौज का सन्दल चुरा लिया ।
बिन्दी गई , कंगन गए , मेँहदी कभी कभार ,
फैशन चली तो आँख से काजल चुरा लिया ।
उतरेगी नज़र किस तरह दुर्लभ हैँ राई - नोन ,
महँगाई ने ममता भरा आँचल चुरा लिया ।
लोरी नहीँ , परियोँ की कहानी नहीँ , टी. वी. ,
गाँवोँ से इसने आल्हा औ ऊदल चुरा लिया ।

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

जाली नोट

इन दिनोँ नकली नोटोँ के बाजार मेँ प्रचलन की मीडिया मेँ बड़ी चर्चा हो रही है । वक्तव्य दिए जा रहे हैँ , लेख लिखे जा रहे , स्यापा किया जा रहा है कि पड़ौसी देश हमारी अर्थ व्यवस्था को हानि पहुँचाने की कोशिश कर रहा है । दाऊद इब्राहिम जाली नोटोँ की फैक्ट्री चला रहा है । नकली नोटोँ की खेप नेपाल और बँगलादेश के रास्ते भारत भेज रहा है । वाह क्या बात है ! कितनी जिम्मेदारी भरी बातेँ करने वाली है हमारी सरकार ! जब सब कुछ आपको मालूम है तब किस बात की प्रतीक्षा की जा रही है ? ये सटीक निशाने पर मार करने वाली तमाम मिसाइलेँ क्या सिर्फ 26 जनवरी की परेड की शोभा बढ़ाने के लिए बनाई गई हैँ । आए दिन किसी न किसी नई मिसाइल के चाँदीपुर से सफल परीक्षण का दावा किया जाता है । जंगल मेँ मोर नाचा किसने देखा ? किसी दिन किसी मिसाइल को उसके वास्तविक निशाने पर भी तो छोड़कर देखिए । अगर निशाना अचूक हुआ तो देश की जनता और दुनिया भी देख लेगी । इससे दुनिया मेँ भारत की साख और दबदबा क़ायम हो जाएगा । वर्षोँ से हमारी सरकार पाकिस्तान को दस्तावेजी सबूत दे रही है कि दाऊद इब्राहिम कराँची मेँ बैठकर भारत विरोधी गतिविधियाँ चला रहा है । मगर आपकी सुनता कौन है ? आपकी औक़ात उसके आगे गलियोँ दुम हिलाते घूमने वाले आवारा कुत्ते से अधिक और कुछ नहीँ है । लगता है हम भी अपनी ऐसी ही औक़ात से संतुष्ट और प्रसन्न हैँ । यदि केवल एक मिसाइल दाऊद के घर को निशाना बनाकर छोड़ दी जाए तो फिर कोई सबूत देने की जरूरत नहीँ पड़ेगी । लेकिन जो सरकार सीधे सीधे पाकिस्तान का नाम लेने की जगह उसे ' एक पड़ौसी देश ' कहती हो उस सरकार से आप यदि मिसाइल दाग़ने की उम्मीद करेँ तो यह उसकी अन्तर्राष्ट्रीय छबि के खिलाफ़ होगा । यही कारण है कि देश के अन्दर भी अब कई लोगोँ ने नकली नोटोँ की छोटी मोटी फैक्ट्रियाँ डाल ली हैँ । हमारी टिमरनी मेँ भी कुछ वर्ष पूर्व ऐसी ही एक छोटी फैक्ट्री डाली गई थी लेकिन कुशल संचालन के अभाव मेँ उस फैक्ट्री ने शुरुआत मेँ ही दम तोड़ दिया । कहा जा रहा है कि हमारी मुद्रा का फार्मूला शायद चुरा लिया गया है । क्या कहा जाए ऐसे रिज़र्व बैँक के बारे मेँ । अब तो कई जगह ए टी एम से भी जाली नोट निकलने की खबरेँ आ रही हैँ । कौन कहेगा कि इस देश को कोई जिम्मेदार सरकार चला रही है ? कहीँ किसी दिन यदि आप ऐसी ख़बर या विज्ञापन पढ़ेँ तो आश्चर्य मत करना कि भारत देश को चलाने के लिए देशी और विदेशी ठेकेदारोँ से मुहरबन्द निविदाएँ आमंत्रित की जाती हैँ । धन्य है कि फिर भी सारे जहाँ अच्छा हिन्दुस्तान हमारा है । अस्तु ।

सोमवार, 7 सितंबर 2009

पत्थर नहीँ हूँ मैँ

ज़र्रा हूँ कोई क़ीमती पत्थर नहीँ हूँ मैँ ।
कुछ भी हूँ मग़र तेरे बराबर नहीँ हूँ मैँ ।
मुफ़लिस हूँ मुक़द्दर का सिक़न्दर नहीँ हूँ मैँ ।
वाक़ई किसी फ़कीर से क़मतर नहीँ हूँ मैँ ।
मैली बहुत है ज़िन्दग़ी गहरे लगे हैँ दाग़ ,
ओढ़ी हुई क़बीर चादर नहीँ हूँ मैँ ।
गिर जाऊँगा मुझको न फ़लक़ पर बिठाओ तुम ,
नाचीज़ हूँ पहुँचा हुआ शायर नहीँ हूँ मैँ ।
जो भी जरूरी बात है बस आज ही कर लो ,
दिन बीतने के बाद मयस्सर नहीँ हूँ मैँ ।
आओ जरा क़रीब ग़िरेबाँ मेँ झाँक लो ,
सीने मेँ दिल है मोम का पत्थर नहीँ हूँ मैँ ।

रविवार, 6 सितंबर 2009

बड़े सुभीते हैँ

आह भरते हैँ अश्क़ पीते हैँ ।
गर्दिशो मुफ़लिसी मेँ जीते हैँ ।
क़ैद चिड़ियाघरोँ मेँ हैँ लेकिन ,
हम तो जंगल के शेर चीते हैँ ।
हर कोई कैँचियाँ चलाता है ,
जैसे उदघाटनोँ के फीते हैँ ।
मौत बेहतर है ज़िन्दगी से जहाँ ,
ऐसे हालात मेँ वो जीते हैँ ।
फ़न है , अल्फ़ाज़ हैँ , तसव्वुर है ,
फिर क्योँ अपने नसीब रीते हैँ ।
ढाँकने के लिए ग़रीबी को ,
अपने चिथड़ोँ रोज सीते हैँ ।
उनके तलवोँ को चाटना सीखो ,
इस हुनर मेँ बड़े सुभीते हैँ ।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

गुलाब जैसा था

नक़ाब मेँ था मग़र माहताब जैसा था ।
मुझे है याद वो चेहरा गुलाब जैसा था ।
आँख मिलते ही कई लोग होश खो बैठे ,
नशा निग़ाह मेँ बिलकुल शराब जैसा था ।
मुस्कराना यदि ख़ुशबू बिखेर देता था ,
तो उसका रूठना फिर इन्क़लाब जैसा था ।
वो किसी बात पर गुस्से से तमतमाए तो ,
मिजाज चाँद का भी आफ़ताब जैसा था ।
सवाल इस क़दर दागे थे उनकी चुप्पी ने ,
हमारा हाल किसी लाजवाब जैसा था ।
इत्र जब लाश को लोगोँ ने लगाया तो लगा ,
ये बदनसीब अवध के नवाब जैसा था ।
मेरे क़रीब जो आया उसी ने पहचाना ,
मेरा वज़ूद खुली हुई क़िताब जैसा था ।

बुधवार, 2 सितंबर 2009

नहीँ रहे

दिल मेँ किसी के जो कभी दाख़िल नहीँ रहे ।
चैन औ सुकून भी उन्हेँ हासिल नहीँ रहे ।
करते हैँ खून भी मग़र सर पे नहीँ लेते ,
पहले की तरह आज के क़ातिल नहीँ रहे ।
सेहरा हमेशा जीत का उनके ही सिर बँधा ,
दुश्मन की हरक़तोँ से जो ग़ाफ़िल नहीँ रहे ।
तूफान की लहरोँ मेँ कटी ज़िन्दगी तमाम ,
अपने नसीब मेँ कभी साहिल नहीँ रहे ।
नफ़रत से , हिक़ारत से ही देखा गया उन्हेँ ,
कुछ लोग कभी प्यार के क़ाबिल नहीँ रहे ।
लगती हैँ ठोकरेँ , कभी पड़ता है भटकना ,
इंसान के आगे अग़र मंज़िल नहीँ रहे ।
कल तक जो इन्क़लाब के हामी थे , क्या हुआ ?
क्योँ आज वही भीड़ मेँ शामिल नहीँ रहे ।
कैसे , कहाँ , कब , कौन , क्या , कितना या किसलिए ,
ऐसे सवाल आजकल मुश्क़िल नहीँ रहे ।
इतना जलील दोस्तोँ ने कर दिया हमेँ ,
दुश्मन भी कभी इस क़दर जाहिल नहीँ रहे ।
बस मेँ नहीँ है आजकल अपने , ये क्या हुआ ?
शायद हमारे पास अब ये दिल नहीँ रहे ।
जो भी मिले हैँ आज तक आधे या अधूरे ,
बरसोँ से यहाँ लोग मुक़म्मिल नहीँ रहे ।

सोमवार, 31 अगस्त 2009

क़व्वालियाँ

हर तरफ़ बजने लगी हैँ तालियाँ ।
गीत जब से हो गए क़व्वालियाँ ।
किस तरह तोड़ेँ फलोँ को पेड़ से ,
और ऊँची हो गई हैँ डालियाँ ।
अच्छे-अच्छे शब्द अपने पास हैँ ,
क्योँ भला फिर देँ किसी को गालियाँ ।
अब कहाँ रौनक बची रुख़सार पर ,
हो गईँ ग़ायब लबोँ से लालियाँ ।
नाम सीता और गीता अब कहाँ ,
अब यहाँ हैँ रूबियाँ , शेफ़ालियाँ ।
बाँट दी खुशियाँ सभी जो पास थीँ ,
माँग लीँ अपने लिए बेहालियाँ ।
अब कोई चेहरा नज़र आता नहीँ ,
खिड़कियोँ पर जड़ गई हैँ जालियाँ ।
सो गए हुक़्क़ाम चादर तानकर ,
फिर करेगा कौन देखा भालियाँ ।

आशियाने की

मिली हैँ चंद घड़ियाँ ज़िन्दगी मेँ मुस्कराने की ।
चलो फिर बात कर लेँ आज कुछ हँसने हँसाने की ।
अभी खाली नहीँ दुनिया हुई है क़द्रदानोँ से ,
कहीँ से आएगी आवाज़ हमको भी बुलाने की ।
अग़र गाऊँ तो ख़ुश हूँ मैँ, सभी ऐसा समझते हैँ ,
मुझे आदत है मुश्क़िल दौर मेँ भी गुनगुनाने की ।
फ़क़त मैँने तो अपनी दास्ताने ग़म सुनाई थी ,
मेरी मंशा नहीँ थी दरअसल तुमको रुलाने की ।
न बारिश है , न सर्दी है , न मौसम है बहारोँ का ,
तलब क्योँ उठ रही है आज फिर घर लौट जाने की ।
ग़ुज़ारे थे जहाँ पर ज़िन्दगी के कुछ अहम लमहे ,
अभी तक याद आती है हमेँ उस आशियाने की ।

रविवार, 30 अगस्त 2009

भा.ज.पा. की अन्तर्कलह

भारतीय जनता पार्टी के लिए इससे अधिक लज्जा की बात और क्या हो सकती है कि उसकी अन्तर्कलह पर काँग्रेस नेता और प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिँह चिन्ता व्यक्त करेँ । वैसे तो काँग्रेस के मन मेँ इन घटनाओँ से लड्डू फूट रहे होँगे लेकिन ऐसी चिन्ता प्रकट करके काँग्रेस ने यह जताने का प्रयास किया है कि वह लोकतंत्र मेँ मजबूत विपक्ष की पक्षधर है । जबकि ऐसे प्रकरणोँ से काँग्रेस का इतिहास भरा पड़ा है । वैसे तो भाजपा के वैचारिक अवधान मेँ स्खलन भारतीय जनसंघ के समय मेँ ही प्रारंभ हो गया था । पं.दीनदयाल उपाध्याय की दु:खदायी हत्या के बाद कुछ समय तक सब कुछ ठीक चला लेकिन किसी समय जनसंघ के अध्यक्ष पद को सुशोभित कर चुके बलराज मधोक को जब पार्टी से निष्कासित कर दिया गया तो यह अहसास होने लगा कि जनसंघ के दिये के तेल मेँ कुछ गड़बड़ है । संयोग से जिस दिन बलराज मधोक को बाहर किया गया था वे ग्वालियर मेँ थे और मैँ उन दिनोँ वहाँ पत्रकारिता का ककहरा सीख रहा था । कमलाराजा कन्या महाविद्यालय कम्पू मेँ एक संगोष्ठी मेँ शिरकत करने वे ग्वालियर आए थे । इसी संगोष्ठी मेँ तत्कालीन युवातुर्क चन्द्रशेखर काँग्रेस की ओर से तथा प्रो.एन.जी.गोरे समाजवादियोँ के प्रतिनिधि के रूप मेँ शामिल हुए थे । यहीँ मञ्च पर चन्द्रशेखर ने मधोकजी को उनके निष्कासन की सूचना दी। कार्यक्रम के बाद प्रो.बलराज मधोक से मेरी एक संक्षिप्त भेँट हुई । मैँने उनके निष्कासन पर उनकी प्रतिक्रिया जानना चाही तो उन्होँने केवल इतना ही कहा था कि यह दु:खद है । उनके शब्द भले ही थोड़े से थे पर उनका चेहरा तब के जनसंघ और अब भाजपा के भविष्य को लेकर बहुत कुछ बयान कर रहा था । शायद यह जनसंघ के वैचारिक अवधान के लिए पहला झटका था । यह 1973-74 का वह समय था जब जनसंघ विचारोँ और सिद्धांतोँ के प्रति समर्पित कार्यकर्ताओँ पर आधारित पार्टी के रूप मेँ देश मेँ अपना स्थान बना चुका था । ऐसे समय मेँ अपेक्षाकृत युवा लालकृष्ण आडवाणी के हाथोँ मेँ जनसंघ की बागडोर सौँपी गई । कार्यकर्ताओँ मेँ कुछ उत्साह का संचार हुआ । कुछ समय बाद देश पर आपातकाल थोपा गया । प्राय: सभी विपक्षी नेता जेल भेज दिए गए । 19 महीनोँ तक इस देश ने अन्याय,अत्याचार और शोषण को भोगा । फिर आपातकाल हटा । नेतागण जेल से छोड़े गए । विपक्षी नेताओँ की खिचड़ी पकी और सबने मिलकर काँग्रेस को पटखनी देने के एकसूत्रीय कार्यक्रम के तहत अपनी-अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओँ को तिलांजलि देकर जनता पार्टी का गठन किया । आम चुनाव हुए तो जनता पार्टी को अभूतपूर्व सफलता मिली । लेकिन इस विजय को अलग-अलग विचारधाराओँ वाले नेता अधिक समय तक पचा नहीँ पाए और अन्तत: जनता पार्टी बिखर गई । यह तो होना ही था क्योँकि यह जीत उनकी थी ही नहीँ वास्तव मेँ यह आपातकाल के दौरान व्यापक पैमाने पर की गई जबरन नसबंदी का असर था जिसके भय से लोगोँ ने हर हाल मेँ काँग्रेस को हटाने का जनादेश दिया था । जनता पार्टी के पतन के बाद जनसंघ से जुड़े लोगोँ ने भारतीय जनता पार्टी का गठन किया और छुटपुट विरोध के बाद गाँधीवादी समाजवाद को अपने उद्देश्योँ मेँ शामिल किया । वैचारिक अवधान मेँ परिवर्तन का यह एक और शिलालेख बन गया । अपनी -अपनी पार्टियोँ मेँ उपेक्षित कई काँग्रेसी और समाजवादी अपना भविष्य सुरक्षित बनाने के लिए भाजपा मेँ शामिल हो गए । सत्ता का सुख भोग चुके ये लोग अपने साथ काजल की कोठरी से ढेर सारा काजल लेकर आए थे जिसने भाजपा के कई नेताओँ को भी रँग दिया । भाजपा के कई नेता भी सत्तासुन्दरी के प्रति आकर्षित दिखाई देने लगे । कुछ अपवादोँ को छोड़ देँ तो अधिकतर भाजपाई अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता भूल गए और उनका कथित रूप से काँग्रेसीकरण हो गया । येन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्ति ही उनका उद्देश्य हो गया । नीचे से ऊपर तक कमोबेश यही स्थिति निर्मित हो गई । जनहित पीछे छूट गया । स्वार्थ और भ्रष्टाचार की अपसंस्कृति विकसित हो गई । कहा जा सकता है कि भाजपा काँग्रेस का नया संस्करण बन गई । मुझे यह लगता है कि भाजपा को जनसंघ के समय के वैचारिक अवधान की ओर लौटना होगा । अखण्ड भारत,समान नागरिक संहिता,रामजन्मभूमि और धारा 370 के मुद्दे उसे पुरजोर ढंग से अपने एजेण्डे मेँ रखना चाहिए तभी उसे अपना खोया हुआ स्थान पुन: प्राप्त हो सकता है । सेकुलर छबि बनाने के फेर मेँ उसकी स्थिति न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम की हो गई है । भाजपा का वर्तमान संकट एक अवसर लेकर आया है जिसका उपयोग उसे अपने आप को बदलने के लिए कर लेना चाहिए । आत्ममंथन का यह अच्छा समय उपलब्ध हुआ है । इसे भुनाने मेँ अब देर नहीँ करना चाहिए वरना एक दिन भाजपा इतिहास की वस्तु हो जाएगी । आशा की जानी चाहिए कि भाजपा इस संकट से उबरकर पुन: अपने समृद्ध स्वरूप मेँ देश की सेवा करके उसे परमवैभव पर पहुँचाने के संकल्प पर चलेगी । अस्तु ।

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

मुझको

प्रेम से जिसका भी जी चाहे बुला ले मुझको ।
रोक पायेँगे नहीँ पाँव के छाले मुझको ।
मेरी तक़दीर अँधेरोँ से बँधी है लेकिन ,
हर जरूरत मेँ मयस्सर हैँ उजाले मुझको ।
दास्ताँ पूछकर अच्छा नहीँ किया तुमने ,
कर दिया फिर उन्हीँ यादोँ के हवाले मुझको ।
इस क़दर प्यार जताते रहे तो लगता है ,
पड़ेँगे फिर किसी दिन जान के लाले मुझको ।
क्या कमी है ? क्या वजूहात हैँ ? सोचा है कभी ,
दूर क्योँ जा रहे हैँ चाहने वाले मुझको ।

शनिवार, 22 अगस्त 2009

रहते हैँ

नहीँ आज़ाद हैँ हाक़िम की मनमानी मेँ रहते हैँ ।
यहाँ दिन - रात हम उनकी महरबानी मेँ रहते हैँ ।
बग़ावत ग़र हमारा दिल करे , उसको कुचलते हैँ ,
मगर से बैर हम कैसे करेँ , पानी मेँ रहते हैँ ।
मुक़दमे औ अदालत ज़िन्दगी के बन गए हिस्से ,
मुब्तिला फ़ौज़दारी मेँ या दीवानी मेँ रहते हैँ ।
लटकता है सदा खंजर हमारा हाल है ऐसा ,
कि बकरे जिस तरह तैयार क़ुरबानी मेँ रहते हैँ ।
मजा सब किरकिरा अब हो चला है काम करने का ,
सदा हँसते हैँ पर सचमुच परेशानी मेँ रहते हैँ ।
घुटन के बीच इस माहौल मेँ सब ही अकेले हैँ ।
यहाँ पर भीड़ के रहते बियाबानी मेँ रहते हैँ ।
समझदारी , वफ़ादारी सदा आफ़त बुलाती है ,
मजे मेँ बस वही हैँ जो कि नादानी मेँ रहते हैँ ।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

मोहम्मद अली जिन्ना

इसमेँ कोई सन्देह नहीँ कि मोहम्मद अली जिन्ना भारत विभाजन के अपराधी हैँ और इस अपराध के कारण उन्हेँ हम कभी भी क्षमा नहीँ कर सकते । लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीँ है कि हम उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे मेँ कुछ कहना,सुनना,पढ़ना,लिखना या चर्चा करना भी पसन्द न करेँ । इस देश मेँ हमेशा ही विरोधी विचारोँ का सम्मान किया जाता रहा है । कबीर तो सदियोँ पूर्व इसके महत्व को प्रतिपादित कर चुके हैँ । भारतीय जनता पार्टी मेँ जसवन्तसिँह की पुस्तक के कारण इन दिनोँ जो भूचाल आया हुआ है उसने पार्टी मेँ आन्तरिक लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है । यद्यपि मैँने इस पुस्तक को नहीँ पढ़ा है लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार उनसे नहीँ छीना जा सकता । पार्टी से बेआबरू कर निकाले जाने से पहले उनकी पुस्तक पर पार्टी मेँ खुलकर चर्चा होनी चाहिए थी । जसवन्तसिँह ने शायद यह तो कहीँ नहीँ कहा होगा कि ये पार्टी के विचार हैँ । क्या पार्टी मेँ रहकर कोई अपने विचार लिपिबद्ध नहीँ कर सकता ? वैचारिक मतभेद तो लोकतंत्र की शोभा होते हैँ । जसवन्तसिँह जैसे जिम्मेदार और कद्दावर नेता को बाहर का रास्ता दिखाने से पहले दस बार सोचा जाना चाहिए था । अनेक महत्वपूर्ण दायित्वोँ को निभा चुके जसवन्तसिँह ने वामपंथियोँ के गढ़ मेँ जाकर पार्टी का परचम लहराया था । पार्टी उनके योगदान को भुलाकर उनके साथ ऐसा सुलूक करेगी यह थोड़ा अजीब लगता है । आज तक दुनिया मेँ ऐसा कोई इंसान पैदा नहीँ हुआ जिसकी उसके समकालीन लोगोँ ने निन्दा या आलोचना न की हो । राम , कृष्ण , ईसा या गाँधी कोई भी आलोचना से नहीँ बच सका । आलोचना से केवल वही बच सकता है जो बिलकुल निकम्मा और निरुपयोगी हो । फल वाले पेड़ोँ पर ही पत्थर फेँके जाते हैँ , कँटीली झाड़ियोँ पर नहीँ । आलोचना तो किसी व्यक्ति के सफल और सक्रिय जीवन का प्रमाण पत्र होती है । हाल के कुछ वर्षोँ मेँ आलोचना से डरने और स्वस्थ बहस से बचने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । गाँधीजी के नकली चेले और नकली अनुयायी इस प्रवृत्ति मेँ सबसे आगे दिखाई देते हैँ ।गाँधीजी की आत्मा (यदि उनका मोक्ष नहीँ हुआ होगा तो) उनकी इन करतूतोँ से निश्चित ही दु:खी होती होगी क्योँकि गाँधीजी अपने विरोधियोँ और आलोचकोँ के विचारोँ का सम्मान करते थे । लेकिन अब तो भारतीय जनता पार्टी का रवैया भी ऐसा ही लगने लगा है । और हो भी क्योँ न , आख़िर वह भी तो अब काँग्रेस की कार्बन कॉपी बन चुकी है । उसका पुराना वैचारिक अवधान खो चुका है । दूसरोँ के विचारोँ को न सुनना असभ्यता की निशानी माना जाता है । सभ्य उसे कहा जाता है जो सभा मेँ बैठने की योग्यता रखता हो । हमारी संवैधानिक विवशताओँ के कारण देश की उच्च सभाओँ मेँ बड़ी संख्या मेँ ऐसे लोग पहुँचते रहे हैँ जो वहाँ बैठने की पात्रता नहीँ रखते ।मोहम्मद अली जिन्ना के बारे मेँ मैँ इतना जानता हूँ कि वे एक पक्के राष्ट्रवादी थे । पश्चिमी विचारोँ तथा पश्चिमी भाषा और भूषा से वे बहुत प्रभावित थे । एक बैरिस्टर और विचारक के रूप मेँ उनका देश मेँ बड़ा सम्मान था । वे न तो नमाज़ पढ़ते थे और न ही रोज़े रखते थे । कहा जा सकता है कि वे पंथनिरपेक्षता के पक्षधर थे । लेकिन जब उन्होँने यह अनुभव किया कि गाँधीजी उनके जैसे प्रगतिशील सोच के मुसलमान के विचारोँ की अपेक्षा कट्टर मुसलमानोँ के विचारोँ को अधिक महत्व देते हैँ तो उनकी सोच मेँ परिवर्तन आ गया और वे शायर मोहम्मद इक़बाल के द्विराष्ट्रवाद के विचार को आगे बढ़ाने मेँ लग गए । इसका असर यह हुआ कि अब अँग्रेज और गाँधीजी दोनोँ ही उन्हेँ महत्व देने लगे । यही वह कारण था कि एक अच्छा खासा राष्ट्रवादी ,प्रगतिशील और पढ़ा लिखा व्यक्ति कट्टरवादी मुसलमान बन गया । हालाँकि पाकिस्तान बनने के बाद भी उनके पंथनिरपेक्ष विचार कायम थे और इसीलिए उन्होँने पाकिस्तान को एक इस्लामिक देश घोषित करने की बजाए धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया था । लेकिन उनकी मृत्यु के बाद पाकिस्तान का वह स्वरूप कायम नहीँ रह सका । अब मेरे पाठक स्वयं जिन्ना के बारे मेँ अपनी राय तय करेँ और यदि मेरे द्वारा कोई तथ्य अधूरा गलत प्रस्तुत हो गया हो तो मुझे अपनी टिप्पणी से अवगत कराने की कृपा करेँ । अस्तु ।

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

राष्ट्र की सुरक्षा सर्वोपरि

धन्य है भारत का मीडिया जो लोगोँ की समस्याओँ को मुखरता से उठाने की बजाए इन दिनोँ शाहरुख खान के कथित अपमान को लेकर हायतौबा मचा रहा है । अमेरिका द्वारा अपने राष्ट्र की सुरक्षा के प्रति बरती जा रही सावधानियोँ से सबक लेने के बजाए एक अनावश्यक मामले को उछाला जा रहा है । राष्ट्र की सुरक्षा से ऊपर कोई नहीँ हो सकता भले ही वो कोई भी हो कितना भी बड़ा हो । इसी नीति को कठोरता से लागू करने का परिणाम है कि 9/11 के बाद अमेरिका मेँ आतंकवाद की एक भी घटना नहीँ । इसके विपरीत भारत मेँ राष्ट्र की और जनता की सुरक्षा के प्रति घोर और अक्षम्य आपराधिक लापरवाही बरती जा रही है । यहाँ आतंकवादी घटना के बाद रेड अलर्ट घोषित किया जाता है । यह रेड अलर्ट कब ग्रीन हो जाता है इसका पता ही नहीँ चलता । यह कहा जा रहा है कि शाहरुख खान से इसलिए पूछताछ की गई क्योँकि वह मुसलमान है । वास्तव मेँ तो भारतीय मीडिया ऐसा कहकर अमेरिका की सुरक्षा एजेँसियोँ की कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़े कर रहा है । शाहरुख खान की चाटुकारिता करने वाला मीडिया उसे किँग खान और बादशाह खान तक कहता है । अब आप ही सोचिए कि मीडिया मेँ यह कौन सी प्रवृत्ति विकसित होती जा रही है । लेकिन भारतीय मीडिया के लिए यह कोई नई बात नहीँ है । इसके पहले वह राहुल गाँधी को काँग्रेस का युवराज कहकर महिमामण्डित करती रही है । मीडिया का यह कहना कि मुसलमान होने के कारण शाहरुख खान को यह ज़लालत झेलनी पड़ी तो यह मुसलमानोँ के लिए चिन्ता का विषय होना चाहिए कि तमाम दुनिया मेँ उन्हेँ क्योँ सन्देह की नज़रोँ से देखा जाता है ? कुछ मुट्ठी भर लोगोँ की करतूतोँ के कारण समूची मुसलमान कौम इसलिए बदनाम हो रही है क्योँकि उनकी इन करतूतोँ के ख़िलाफ मुसलमान प्राय: खुलकर अपना विरोध व्यक्त नहीँ करते । शादी, तलाक़ और वन्दे मातरम जैसे मामलोँ मेँ फ़तवा जारी करने वाले मुल्ला , मौलवी और इस्लाम की दीनी संस्थाएँ आतंकवादियोँ के ख़िलाफ फ़तवा जारी कर उन्हेँ और उनकी करतूतोँ को ग़ैर इस्लामी घोषित क्योँ नहीँ करते ? राष्ट्र की सुरक्षा के प्रति सजग अमेरिका की प्रशंसा करने के स्थान पर पूछताछ की सामान्य प्रक्रिया को नमक मिर्च लगाकर शाहरुख खान के अपमान के रूप मेँ इस तरह परोसा जा रहा है मानो यह इस देश का अपमान हो । होना तो यह चाहिए कि अमेरिका से सबक लेकर हमेँ भी अपने राष्ट्र की सुरक्षा के लिए ऐसे ही उपाय अपनाएँ । मगर भारत के मीडिया के लिए इससे बड़ी ख़बर शायद कोई थी ही नहीँ । उसके लिए महँगाई ,भ्रष्टाचार और स्वाइन फ़्लू से मरती जनता की बढ़ती मुसीबतेँ जैसे कुछ भी नहीँ । धिक्कार है ऐसे बिके हुए , स्वाभिमानशून्य और चाटुकार मीडिया को ।

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

अधूरी आज़ादी

हम आज अधूरी आज़ादी की वर्षगाँठ मना रहे हैँ । लाहौर मेँ रावी के तट पर लिए गए संकल्प को तत्कालीन सत्तालोलुप नेतृत्व ने भुला दिया । अफ़सोस तो इस बात का है कि हमारा ढुलमुल,कमजोर,रीढ़विहीन और आत्मविस्मृत नेतृत्व इस अधूरी आज़ादी को भी सँभालकर नहीँ रख सका । कश्मीर का एक बड़ा भाग पाकिस्तान ने तुरन्त ही हमसे हड़प लिया । नेहरू ने कश्मीर मसले को यू एन ओ मेँ ले जाकर इसे आने वाली पीढ़ी के लिए अन्तहीन सिरदर्द बना डाला । हम खामोश रहे । चीन ने बलपूर्वक हजारोँ वर्गमील भूमि पर कब्जा कर लिया । हम चुप रहे । कच्छ का रन पाकिस्तान को , कच्चातिवु द्वीप श्रीलंका को और तीन बीघा गलियारा बँगला देश को तश्तरी मेँ रखकर भेँट कर दिया । हम देखते रहे । अभी क्या है ! पूर्वोत्तर संकट मेँ है । सीमाएँ असुरक्षित हैँ । घुसपैठ जारी है । आस्तीन के साँप सक्रिय हैँ । हम कुंभकर्णी नीँद मेँ हैँ । आतंकी निर्भीक घूम रहे हैँ । आम जनता मँहगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त है । धन्य है इस देश की जनता जो फिर भी सुनहरे भविष्य के प्रति आशान्वित है । लेकिन क्या निराश हुआ जाए ? नहीँ ! निराश होने की जरूरत नहीँ है । बस INDIA को भारत बनाने का प्रयास करेँ । जिस दिन हम भारत बना लेँगे सारी समस्याएँ अपने आप हल हो जाएँगी । भारतमाता की जय ।

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

नाग काले

जिन घरोँ मेँ घूमते हैँ नाग काले ।
लोग अब कहने लगे उनको शिवाले ।
कोई कहता ज़िन्दगी मिल जाए मुझको ,
कोई कहता या ख़ुदा मुझको उठा ले ।
भूख की पीड़ा जरा उनसे तो पूछो ,
छिन गए हैँ हाथ से जिनके निवाले ।
इन अँधेरोँ से भला अब ख़ौफ़ कैसा ?
आपने खुद ही मिटाए हैँ उजाले ।
जिक्र मेरा भी हुआ है जब कभी भी ,
शोषितोँ के आपने चर्चे निकाले ।
क्या कभी पिघले हैँ पत्थरदिल सियासी ,
तू भले ही उम्र भर आँसू बहा ले ।
दर बदर भटके फिरे हैँ साथ लेकर ,
ये दिलोँ के दाग़ और पैरोँ के छाले ।

बुधवार, 12 अगस्त 2009

नीँव के पत्थर

नीँव के पत्थर बहुत गहरे मेँ दफ़नाए गए ।
ख़ूबसूरत संगे मरमर सामने पाए गए ।
आदमी के खून से थे हाथ जिनके तरबतर ,
बाद मे वे लोग भी निर्दोष ठहराए गए ।
शान्ति के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर जब हो चुके ,
इस खुशी मेँ कुछ कबूतर भूनकर खाए गए ।
जिन वफ़ादारोँ के बलबूते पे हम आगे बढ़े ,
चन्द टुकड़े डालकर वे लोग बहकाए गए ।
एक जयचंद जा मिला ग़ोरी मुहम्मद से गले ,
आज फिर इतिहास के सोपान दोहराए गए ।
ये सियासत , ये हुकूमत और ये जम्हूरियत ,
आड़ मेँ इनकी हमेशा जुल्म बरसाए गए ।
एक प्यारा गाँव जलकर राख की ढेरी हुआ ,
तब शहर से अग्निशामक यंत्र भिजवाए गए ।

ये शहर जंगल हुआ

आम जनता मेँ ये कौतूहल हुआ ।
आज भी होगा वही जो कल हुआ ।
एक ऐसी चीज़ है इस देश मेँ ,
मिल गई जिसको वही पागल हुआ ।
पाकर सूरज की तपन पोखर का पानी ,
आसमाँ छूने लगा , बादल हुआ ।
किस तरह से दर्द को हम कम करेँ ,
किरकिरी जब आँख का काजल हुआ ।
काम पशुओँ के किए हैँ आदमी ने ,
लग रहा है ये शहर जंगल हुआ ।

रविवार, 2 अगस्त 2009

सड़क पर हैँ

धुंध औ कुहरे सड़क पर हैँ ।
कष्ट यूँ दुहरे सड़क पर हैँ ।
बोलने सुनने की आज़ादी नहीँ ,
गूँगे औ बहरे सड़क पर हैँ ।
ख़ूबसूरत से मुखौटोँ मेँ छुपे ,
बदनुमा चेहरे सड़क पर हैँ ।
पूछते हैँ पाँव नंगे आपसे ,
घाव क्योँ गहरे सड़क पर हैँ ।
बाहुबलियोँ की हिफ़ाजत के लिए ,
पुलिस के पहरे सड़क पर हैँ ।
अपनी मज़िल तक पहुँचना है कठिन ,
काफ़िले ठहरे सड़क पर हैँ ।
तंगदस्ती इस तरफ औ उस तरफ ,
आपके नखरे सड़क पर हैँ ।

शनिवार, 1 अगस्त 2009

कौन करे ?

जालिमोँ का शिकार कौन करे ?
सबसे पहला प्रहार कौन करे ?
वक्त की चाल बड़ी धीमी है ,
वक्त का इन्तज़ार कौन करे ?
सुन सकेँ रहनुमा हमारे भी ,
इतनी ऊँची पुकार कौन करे ?
आज तूफान का अँदेशा है ,
आज दरिया को पार कौन करे ?
आप मेँ कौन बड़ी खूबी है ,
आप पर जाँ निसार कौन करे ?
हम हैँ कीड़े मकोड़े फिर हमको ,
आदमी मेँ शुमार कौन करे ?
बात करने की उन्हेँ आदत है ,
उनसे बातेँ हजार कौन करे ?