शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

ईस्वी सन्‌ 2011

कुछ ही घण्टोँ मेँ ईस्वी सन्‌ 2010 इतिहास की बात हो जाएगा । पीछे छूट जाएँगी अनेक खट्टी - मीठी घटनाएँ।यह साल महँगाई , भ्रष्टाचार और घोटालोँ के कीर्तिमानोँ के साल के रूप मेँ याद किया जाएगा लेकिन आम लोगोँ को न तो घोटालोँ से कोई मतलब है और न ही भ्रष्टाचार से कोई लेना देना । उसका सरोकार तो केवल कमरतोड़ महँगाई से है जिसने उसका जीना दूभर कर रखा है । लेकिन जिन्दा रहना उसकी विवशता इसलिए वह यह बोझ ढोए जा रहा है । उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाला साल महँगाई की दृष्टि से आम लोगोँ के लिए कुछ राहत लेकर आएगा । इसी शुभ - कामना के साथ सभी सुधी पाठकोँ , शुभ चिन्तकोँ और मित्रोँ को नए साल की हार्दिक बधाई ।

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

ज्योति पर्व मंगलमय हो

खिल गई मन के उपवन की नन्ही कली ।
जगमगाने लगी हर सड़क हर गली ।
थे प्रतीक्षा मेँ पलकेँ बिछाए हुए ,
आ गई ले के उल्लास दीपावली ।
समस्त पाठकोँ , शुभचिन्तकोँ , मित्रोँ , परिजनोँ , पुरजनोँ और देशवासियोँ को सपरिवार ज्योति पर्व की हार्दिक शुभ - कामनाएँ । हम सभी के जीवन मेँ यह पर्व सुख , समृद्धि , ऐश्वर्य , प्रकाश और उल्लास लेकर आए , परमात्मा से यही मंगल - कामना है ।
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

अरुन्धति रॉय को फाँसी दो

यह केवल और केवल भारत जैसे उदात्त चरित्र वाले देश मेँ ही संभव है कि अरुन्धति रॉय जैसी कमीनी औरत एक के बाद एक राष्ट्र द्रोही बयान देती हुई सरेआम घूम रही है और फिर भी हम उसका कुछ नहीँ बिगाड़ पा रहे हैँ । अब सुना है कि वह देश छोड़कर फरार हो गई है । ' गॉड ऑफ स्माल थिँग्स ' नामक एक बेहद घटिया , सड़कछाप और अश्लील किताब लिखने पर उसे विदेश का बुकर पुरुस्कार क्या मिल गया वह अपने आप को सबसे ऊपर और सबसे महान समझने लगी यहाँ तक कि देश से भी ऊपर । बिना कुछ जाने समझे भारत के निठल्ले मीडिया ने भी इस बौराई हुई औरत को महान लेखिका के रूप मेँ महिमामण्डित करने मेँ कोई कसर नहीँ छोड़ी । मुझे याद नहीँ पड़ता कि ' गॉड ऑफ स्माल थिँग्स ' के बाद उसने कोई और किताब भी लिखी है । हाँ देश विरोधी तत्वोँ के हाथोँ का खिलौना बनकर अपने देश विरोधी लेखोँ और वक्तव्योँ से वह अक्सर मीडिया की सुर्खियोँ मेँ जरूर बनी रही । साहित्यिक समझ रखने वाले लोगोँ ने ' गॉड ऑफ स्माल थिँग्स ' को बुकर पुरुस्कार मिलने पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए पुरुस्कार के निर्णायकोँ की समझ पर प्रश्नचिन्ह लगाया था । समय से पहले और जरूरत से ज्यादा सम्मान मिलने से अरुन्धति रॉय को इस कदर गुरूर छा गया कि उसने भारत सरकार द्वारा उसे दिये गये साहित्य अकादमी पुरुस्कार को भी लात मारकर ठुकरा दिया । इतना सब होते हुए भी काँग्रेस के एक अल्पज्ञ प्रवक्ता ने उसे देश की सर्वश्रेष्ठ लेखिका का तमगा दे दिया । काँग्रेस प्रवक्ता की यह टिप्पणी इस देश के महान लेखकोँ का घोर अपमान है और इसलिए सर्वथा त्याज्य और धिक्कारणीय है । जिस औरत को नारकीय जीवन जीने और अपने ही देश मेँ शरणार्थी होने का दंश झेलने को मजबूर कश्मीर के विस्थापित पण्डितोँ की बजाय गिलानी जैसे गद्दारोँ और मासूम , निरपराध ग्रामीणोँ की हत्या करने वाले नक्सलियोँ की ज्यादा फिक्र हो वह औरत खुद भी आम देशभक्तोँ की नजर मेँ एक गद्दार है और ऐसी औरत को सिर्फ और सिर्फ फाँसी की सजा ही मिलनी चाहिए । मगर अफसोस कि वह भारत सरकार को मुँह चिढ़ाते हुए देश छोड़कर भाग निकली यह सरकार का भी अक्षम्य अपराध है और उसे भाग निकलने का मौका देने के लिए जिम्मेदार लोगोँ को भी सजा मिलनी चाहिए । पर मुझे इस सरकार से इसकी कोई उम्मीद नहीँ है ।
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

विजयादशमी

भ्रष्ट व्यवस्था पर हो जन - मानस का पहरा ।
तभी मिटेगा राष्ट्र - भाल का दाग ये गहरा ।
चुन - चुन कर मारे जायेँगे अब के रावण ,
सही अर्थ मेँ तभी मनेगा पर्व दशहरा ।
असत्य पर सत्य की , अन्याय पर न्याय की और बुराई पर अच्छाई की विजय का पर्व विजयादशमी आपको जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मेँ विजय प्रदान करे , यही मंगल - कामना हम करते हैँ ।
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

शक्ति की भक्ति का पर्व

शक्ति की भक्ति के महान भारतीय पर्व शारदीय नवरात्रि पर समस्त पाठकोँ , मित्रोँ , शुभ - चिन्तकोँ और देशवासियोँ को हार्दिक शुभ - कामनाएँ एवं ढेरोँ बधाइयाँ ।
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

फ़ैसला नहीँ तुष्टिकरण

अपने हृदय मेँ माननीय प्रयाग उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ के प्रति सम्पूर्ण आस्था और श्रद्धा का अटूट भाव रखते हुए मैँ यह निवेदन करना चाहता हूँ कि कल 30 सितम्बर को उन्होँने जो फ़ैसला सुनाया है वह दो समुदायोँ के बीच सदियोँ से चले आ रहे विवाद का कोई स्थायी समाधान नहीँ है । इसमेँ सभी सम्बधित पक्षोँ के लिए तात्कालिक तुष्टिकरण से अधिक और कुछ भी नहीँ है । इस फ़ैसले को यदि इसी रूप मेँ अमल मेँ लाया गया तो दो समुदायोँ के बीच यह एक स्थायी विवाद का कारण बनेगा और आम लोग हमेशा ही झगड़े की आशंका से ग्रसित रहेँगे । माननीय उच्च न्यायालय को भविष्य की इसी सम्भावना को ध्यान मेँ रखकर अपने निर्णय मेँ विवाद का स्थायी समाधान प्रस्तुत करना था लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा दूरगामी परिणामोँ वाला निर्णय नहीँ आ सका । यही वह मुख्य कारण है कि फ़ैसले का स्वागत करने के बावज़ूद भी दोनोँ पक्षोँ ने इस निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय मेँ अपील करने की घोषणा की है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने इस फ़ैसले पर एकदम सटीक प्रतिक्रिया व्यक्त की है कि इस फ़ैसले को हार या जीत के रूप मेँ नहीँ देखा जाना चाहिए अर्थात इसमेँ किसी भी पक्ष की हार या जीत नहीँ हुई है । एक बात जो अच्छी हुई वो यह है कि इस फ़ैसले के बाद कहीँ से भी उन्माद भड़कने की कोई ख़बर नहीँ है और इसके लिए प्रशासन की चाक चौबन्द व्यवस्था की प्रशंसा की जाना चाहिए हालाकि मीडिया की शरारतपूर्ण कोशिशोँ के कारण आम जनता मेँ किसी अनहोनी को लेकर तमाम तरस की आशंकाएँ जन्म ले चुकी थीँ । अब इस फ़ैसले के एक सुखद पक्ष की चर्चा करना भी समीचीन होगा । तीनोँ ही माननीय न्यायाधीशोँ ने एकमत से इस तथ्य को स्थापित किया है कि विवादित स्थल ही हिन्दुओँ के आराध्य श्री राम की जन्मभूमि है । और निश्चित ही इसके लिए उन्होँने जिस बात को आधार माना है वह कोटि - कोटि हिन्दुओँ की अटूट आस्था और श्रद्धा ही है । अब इसी आस्था और श्रद्धा के आधार को मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि और काशी के विश्वनाथ मन्दिर के मामले मेँ एक उदाहरण और नज़ीर के रूप मेँ प्रस्तुत करके इनके भी स्थायी समाधान का रास्ता खोजा जाना चाहिए । भारतमाता की जय ।
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

बुधवार, 1 सितंबर 2010

सलाह नहीँ आदेश

आदेश को सलाह कहने पर दो टूक शब्दोँ मेँ फटकार लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बेशर्म कृषि मंत्री शरद पवार के गाल पर जो करारा तमाचा मारा है उससे उन्हेँ अपनी औकात पता चल गई होगी । आजकल के नेताओँ मेँ अपने आप को सबसे ऊपर मानने की जो प्रवृत्ति विकसित हो गई है उस पर अब केवल सर्वोच्च न्यायलय ही अंकुश लगा सकता है । मेहनतकश किसानोँ ने अपना खून पसीना बहाकर देश के अन्न भण्डारोँ को भर दिया लेकिन सरकारी भ्रष्टाचार और अव्यवस्था के कारण उसी अनाज को सड़ते हुए देखकर किसानोँ की आत्मा किलप उठी है । अन्न को ब्रह्म मानने वाले किसानोँ की आत्मा ने अवश्य ही शरद पवार को बद्दुआएँ दी होँगी । निर्लज्ज शरद पवार ने लाखोँ टन अनाज के सड़ने की घटना को मामूली करार देते हुए इसे मीडिया द्वारा बढ़ाचढ़ा कर पेश करने की बात कह दी । आश्चर्य है कि लाखोँ टन अनाज का सड़ना सारी जनता को तो दिखाई देता है पर शरद पवार को नहीँ । इसी तरह बेतहाशा बढ़ती कमरतोड़ महँगाई से जनता पिस रही है पर सरकार को महँगाई की दर मेँ कमी दिखाई दे रही है । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो जनता को दिखाई देता है वह सरकार को नहीँ दिखता और जो सरकार को दिखता है वह आम लोगोँ को दूर - दूर तक नज़र नहीँ आता । हे ईश्वर ! इस सरकार को जनता की दृष्टि प्रदान कर ताकि इसे भी वही दिखाई दे जो हम सबको दिखाई देता है ।
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी

कई बार मन मेँ यह विचार आता है कि देश मेँ आज जैसी स्थिति है उसे देखते हुए तो भगवान को अवतार ले लेना चाहिए । इतनी विकट परिस्थितियोँ के बाद भी यदि भगवान अवतरित नहीँ हो रहे हैँ तो फिर कब होँगे ? फिर दूसरा विचार आता है कि जिन परिस्थितियोँ मेँ परमात्मा ने अवतार लिया था वे शायद आज से भी बदतर रही होँगी । इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि यदि हम भगवान का अवतार चाहते हैँ तो देश मेँ अत्याचार , अनाचार , दुराचार , भ्रष्टाचार और अन्याय को और अधिक बढ़ाना होगा । मुझे यह भी लगता है कि सत्ता मेँ बैठे और सत्ता प्राप्ति की प्रतीक्षा सत्ता से बाहर बैठे हमारे अधिकांश नेता भगवान के शीघ्र ही अवतार लेने की हरसंभव कोशिश मेँ लगे हुए हैँ । उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्दी ही उन सब की कोशिशेँ रंग लाएँगी और इस धराधाम पर उनके प्रयत्नोँ से हम सभी भारतवासियोँ को भगवान के दर्शनोँ का दुर्लभ अवसर प्राप्त होने वाला है ।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पावन पर्व पर समस्त देश वासियोँ , पाठकोँ , इष्ट मित्रोँ और शुभ - चिन्तकोँ को हार्दिक बधाई और शुभ - कामनाएँ ।
* रमेश दीक्षित , टिमरनी ( म.प्र. )

सोमवार, 23 अगस्त 2010

रक्षा बन्धन

समस्त सुधी पाठकोँ , भाइयोँ - बहनोँ , मित्रोँ , शुभ - चिन्तकोँ और दुनिया भर मेँ फैले देशवासियोँ को रक्षा बन्धन पर्व की हार्दिक बधाई एवं ढेर सारी शुभ - कामनाएँ । यह त्यौहार हम सभी के हृदयोँ मेँ राष्ट्रभक्ति , एकता और बन्धुत्व की भावनाओँ का स्फुरण करे , यही ईश्वर से प्रार्थना है ।
शुभेच्छु
रमेश दीक्षित , टिमरनी

रविवार, 15 अगस्त 2010

प्रसंगवश : राष्ट्रीय ध्वज

तिरंगा हमारा राष्ट्रीय ध्वज है । यह हमारे राष्ट्र का गौरवशाली प्रतीक है । हमारे जीवन मेँ राष्ट्र का सर्वोच्च स्थान है या होना चाहिए । कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितना भी बड़ा या महान क्योँ न हो राष्ट्र से बड़ा या राष्ट्र से ऊपर नहीँ हो सकता और इसीलिए वह राष्ट्र ध्वज से भी बड़ा या उससे ऊपर नहीँ हो सकता । प्रत्येक देशभक्त भारतीय को तिरंगे का सम्मान श्रद्धापूर्वक और भक्तिभाव से करना ही चाहिए । इसका अनादर या अपमान करने वाले को देशद्रोही मानना चाहिए और देशद्रोह की सजा सिर्फ़ और सिर्फ़ मौत होनी चाहिए ।
अब थोड़ी चर्चा इसके कभी कभार होने वाले बेजा इस्तेमाल की भी कर लेना आज समीचीन होगा । गुलामी की तुच्छ और हेय मानसिकता के चलते हमारे तत्कालीन रीढ़विहीन नेतृत्व ने राष्ट्रीय ध्वज के लिए विदेशी नियम स्वीकार किए हैँ जो किसी भी स्वाभिमानी देश मेँ उचित नहीँ माने जा सकते । लेकिन हमारे देश मेँ कुछ लोगोँ को राष्ट्र से भी ऊपर मानने की प्रवृत्ति है । इसी कुत्सित और राष्ट्र के लिए अपमानजनक एवं लज्जाजनक प्रवृत्ति के चलते नेताओँ की मृत्यु होने पर राष्ट्रीय ध्वज को झुका दिया जाता है । इतना ही नहीँ तो राष्ट्र ध्वज को उनके शव पर कफ़न की तरह लपेटा जाता है । जैसा कि मैँ पहले कह चुका हूँ कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितना ही बड़ा या महान क्योँ न हो राष्ट्र या राष्ट्रीय ध्वज से ऊपर नहीँ हो सकता । तब लाख टके का सवाल यह उठता है कि राष्ट्रीय ध्वज के सम्मान मेँ व्यक्ति झुके या फिर व्यक्ति के सम्मान मेँ राष्ट्रीय ध्वज झुके ? और फिर राष्ट्रीय ध्वज को किसी के शव पर कफ़न की तरह लपेटना किसी स्वाभिमानी राष्ट्र मेँ कैसे स्वीकार्य हो सकता है । परन्तु लगता है हमारे देश मेँ राष्ट्र का स्थान सबसे ऊपर नहीँ है । चाटुकारिता के कारण व्यक्ति राष्ट्र से भी ऊपर माना जाने लगा है । राष्ट्रीय भावनाएँ साल मेँ केवल दो ही दिन जोर मारती हैँ एक 15 अगस्त को और दूसरे 26 जनवरी को । इन दो अवसरोँ पर कुछ देशभक्तिपूर्ण गीत बजाकर हम अपनी राष्ट्रभक्ति का इज़हार कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैँ । हमारे राष्ट्र जीवन मेँ इस स्थिति मेँ परिवर्तन आना ही चाहिए । हमारे सर्वोच्च न्यायालय मेँ राष्ट्र ध्वज के इस प्रकार गलत इस्तेमाल पर विचार कर नियमोँ मेँ कुछ जरूरी परिवर्तन करना चाहिए । या फिर इस अत्यंत संवेदनशील मामले पर सर्वोच्च न्यायालय मेँ याचिका दायर की जानी चाहिए ताकि राष्ट्र के आत्मसम्मान की रक्षा हो सके ।
- रमेश दीक्षत , टिमरनी

रविवार, 8 अगस्त 2010

पिछली पोस्ट का शेष भाग

इस बारे मेँ मनुष्य की चालाक वृत्ति का एक रोचक उदाहरण देते हुए श्री होसबले ने बताया कि एक आदमी के पास एक घोड़ा था जिसे वह बहुत चाहता था । एक दिन वह घोड़ा बीमार पड़ गया । बहुत उपाय किए पर घोड़ा अच्छा नहीँ हुआ । अन्ततोगत्वा वह भगवान के मन्दिर मेँ गया और मन्नत माँगी कि यदि घोड़ा ठीक हो गया तो मैँ इसे बेच दूँगा और जो भी रकम मिलेगी उसे मन्दिर मेँ दान कर दूँगा । भगवान की कृपा से कुछ दिनोँ मेँ घोड़ा ठीक हो गया । अब उसे भगवान के सामने की हुई अपनी मन्नत याद आई । तब उसने कुछ सोचकर घोड़े को बेचने की घोषणा कर दी और उसकी कीमत रखी पाँच रुपये । यह सुनकर कई ग्राहक आ गए । उसने कहा कि घोड़ा तो पाँच रुपये का है पर एक शर्त है कि घोड़ा खरीदने वाले को घोड़े के साथ एक बिल्ली भी खरीदनी पड़ेगी जिसकी कीमत है दस हजार रुपये । इस प्रकार घोड़े को बेचने से मिले पाँच रुपये तो उसने मन्दिर मेँ चढ़ा दिए और दस हजार रुपये अपनी जेब मेँ रख लिए ।
उन्होँने कहा कि लोगोँ को संस्कार , सेवा , त्याग , समर्पण और देशभक्ति जैसे सनातन जीवन मूल्योँ को बढ़ावा देना चाहिए जो कि आज के समय मेँ कुछ कम हो गए हैँ अथवा बदल गए हैँ । आज देश विरोधी ताकतेँ सक्रिय हैँ , समाज मेँ भ्रष्टाचार व्याप्त है और छुआछूत की समस्या है । इन सब का कारण है ईमानदार नेतृत्व का अभाव । आज मनुष्य को ठीक करने की समस्या है । मनुष्य ठीक होगा तो देश भी अपने आप ठीक हो जाएगा । इसलिए आज संघ कार्य के प्रकाश को सब दूर तेज गति से फैलाने की आवश्यकता है । यह न केवल राष्ट्र को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक है अपितु मानवता की भलाई के लिए भी जरूरी है ।
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

संघ का कार्य व्यक्ति निर्माण

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबले पिछले दिनोँ अपने दो दिवसीय प्रवास पर टिमरनी पधारे थे । श्री भाऊ साहब भुस्कुटे का गाँव होने के कारण देश भर के संघ कार्यकर्ताओँ के मन मेँ टिमरनी के लिए एक तीर्थ की तरह श्रद्धा का भाव रहता है और वे यहाँ आने का कोई भी अवसर गँवाना नहीँ चाहते । श्री होसबले की उपस्थिति का लाभ लेने के लिए यहाँ के सरस्वती शिशु मन्दिर के सभागार मेँ एक बौद्धिक वर्ग का आयोजन किया गया था जिसमेँ टिमरनी और आसपास के संघ स्वयंसेवकोँ के साथ ही बड़ी संख्या मेँ आम जन भी उपस्थित थे । समूचा सभागार जिज्ञासु श्रोताओँ से खचाखच भरा हुआ था । श्री होसबले ने अपने उद्‌बोधन मेँ कहा कि आज देश मेँ ही नहीँ अपितु विश्व भर मेँ संघ का कार्य कोई अपरिचित कार्य नहीँ है । दुनिया भर के लोगोँ के मन मेँ इस के लिए कौतूहल है । विभिन्न देशोँ मेँ गए संघ के स्वयंसेवक वहाँ रह रहे हिन्दुओँ तथा अपनी मातृभूमि के लिए कार्य करते हैँ । जहाँ तक समाज का विस्तार है वहाँ तक संघ कार्य का भी विस्तार है । उन्होँने कहा कि सेकुलरिज़्म का विचार भारत की स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुकूल नहीँ है । हिन्दुत्व का विचार इससे भी श्रेष्ठ विचार है । उन्होँने कहा कि टाइम्स ऑफ इण्डिया के सम्पादक स्वर्गीय गिरिलाल जैन के लेखोँ मेँ हमेशा संघ के प्रति असहमति का भाव दिखाई देता था लेकिन जब उन्होँने संघ को निकट से समझा तो संघ के प्रति उनकी धारणा मेँ आमूलचूल परिवर्तन आ गया । इसी तरह लोकनायक जयप्रकाश नारायण पहले मार्क्सवादी थे फिर गाँधी विचार से प्रभावित होकर समाजवाद की ओर झुके तथा बाद मेँ सर्वोदय का काम किया । संघ के विचारोँ से उनकी भी असहमति रहती थी लेकिन जब उन्होँने संघ कार्य को नज़दीक से देखा समझा तो कहा कि संघ एक क्रान्तिकारी संगठन है । उन्होँने तो यहाँ तक कहा कि यदि संघ फासिस्ट है तो मैँ भी फासिस्ट हूँ । आज संघ के स्वयंसेवक समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रोँ मेँ कार्य कर रहे हैँ । आज सर्वत्र संघ कार्योँ की चर्चा होती है और आलोचना भी होती है जिसका अर्थ यही है कि इसका प्रभाव बढ़ रहा है । श्री होसबले ने आगे कहा कि संघ की आज तक की सफलता के चार प्रमुख कारण हैँ । पहला कारण है हिन्दुत्व का विचार जो कि भारत की मिट्टी का विचार है , यहाँ की संस्कृति और परम्परा का विचार है । दूसरा कारण है संघ का सभी स्तरोँ पर कुशल नेतृत्व । तीसरा कारण है संघ की कार्य पद्धति । नित्य शाखा के माध्यम से अधिक से अधिक लोगोँ को जोड़कर व्यक्ति निर्माण का कार्य करना क्योँकि व्यक्ति निर्माण से ही समाज और राष्ट्र मेँ परिवर्तन आएगा । संघ की सफलता का चौथा कारण है उपरोक्त तीनोँ कारणोँ के कारण निकले संघ के समर्पित कार्यकर्ता जो यह मानते हैँ कि संघ मेरा है और मैँ संघ का हूँ । इन्हीँ चारोँ कारणोँ से आज समाज मेँ संघ प्रभावी है । संघ ने हिन्दुत्व का विचार किसी वाद के रूप मेँ समाज के सामने नहीँ रखा है । हिन्दुत्व का विचार इस देश मेँ कोई नया विचार नहीँ है अपितु यह तो अनादिकाल से इस देश का विचार रहा है । हमारे ऋषियोँ , मुनियोँ , संतोँ , मनीषियोँ और पूर्वजोँ ने जो जीवन पद्धति विकसित की है वह सनातन परम्परा ही संघ का विचार है । संघ ने युगानुकूल सन्दर्भ मेँ इस विचार को समाज के सामने रखा है । यह नित्य नूतन और चिर पुरातन अर्थात सनातन विचार है । उन्होँने कहा कि संघ कोई हिन्दू राष्ट्र का निर्माण नहीँ कर रहा है क्योँकि यह हिन्दू राष्ट्र तो है ही और जो पहले से है उसका निर्माण भला कैसे किया जा सकता है ? लोग हिन्दुत्व के विचारोँ का देश मेँ पालन करते ही हैँ । उन्होँने कहा कि भारत सरकार ने जिस ' सत्य मेव जयते ' को अपने ध्येय वाक्य के रूप मेँ स्वीकार किया है वह हमारे ऋग्वेद से लिया गया है । भारतीय संसद और उच्चतम न्यायालय की दीवारोँ पर जो सूत्र लिखे गए हैँ वे सभी हमारे वेदोँ और उपनिषदोँ से ही लिए गए हैँ । भारतीय जीवन बीमा निगम , दूरदर्शन , एन.सी.ई.आर.टी. तथा देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयोँ और शिक्षा संस्थाओँ के ध्येय वाक्य भी हमारे विभिन्न हिन्दू ग्रंथोँ से ही लिए गए हैँ । यह हमारे देश की परम्पराओँ और मुख्य धारा से जुड़ाव के कारण ही है । हिन्दू जीवन पद्धति की स्वाभाविक हमारे जीवन मेँ व्याप्त हैँ । सारांश यह है कि हम इस देश को हिन्दू राष्ट्र के रूप मेँ ही स्वीकार करते हैँ । इन्हीँ बुनियादी विचारोँ पर संघ का कार्य चलता है । इन विचारोँ को व्यवहार मेँ लाने का कार्य संघ करता है । विचार पुरातन है और पद्धति नूतन है । श्री होसबले ने आगे कहा कि विभिन्न आधारोँ पर भेद करने की आदत हमारे हिन्दू समाज की सबसे बड़ी कमजोरी है । हमारी इस आदत को अँग्रेजोँ ने खूब बढ़ावा दिया । उन्होँने कहा कि हमारे शाखा तंत्र सबको जोड़ने का कार्य करता है । एकात्मता हमारे लिए केवल बौद्धिक कसरत नहीँ है अपितु संघ की शाखाओँ मेँ यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है । समय की कसौटी पर संघ की कार्य पद्धति खरी सिद्ध हुई है । समरसता और एकता का भाव जगाने का कार्य संघ की शाखाओँ मेँ होता है । व्यक्ति निर्माण का संघ का विचार भी भारतीय परम्परा का ही अंग है , केवल तंत्र नया है । कैसे रहना , सबके साथ कैसा व्यवहार करना , ये सब नर को नारायण बनाने के ही उपाय हैँ । मनुष्य को परिपूर्ण बनाना ही हमारा कार्य है क्योँकि इसके बिना हमारा समाज ऊपर नहीँ उठ सकता । उन्होँने कहा कि कानून से मनुष्य मेँ परिवर्तन नहीँ हो सकता । कानून से मनुष्य डरता है और फिर उससे बचने के उपाय सोचता है । आज जब इंसान भगवान तक को धोखा देने से बाज नहीँ आता तब कानून से बचना उसके लिए कौन सा मुश्किल काम है ? इस बारे मेँ ...शेष अगली बार

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

सुभाषित परिमलः

दिनांक 4 अगस्त 2010 बुधवार को टिमरनी के सरस्वती शिशु मन्दिर के श्रद्धेय भाऊ साहब भुस्कुटे सभागृह मेँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबले ने संस्कृत सुभाषितोँ के एक वृहद संकलन ' सुभाषित परिमलः ' का समारोहपूर्वक विमोचन किया । इस अवसर पर उन्होँने इस पुस्तक के लिए संघ के पूज्य सरसंघचालक माननीय मोहनराव जी भागवत द्वारा संस्कृत मेँ प्रेषित शुभ - कामना सन्देश का वाचन भी किया । श्री होसबले ने ' सुभाषित परिमल: ' के संकलनकर्ता और अनुवादक तथा संस्कृत के विद्वान श्री रामचन्द्र विष्णुपंत पातोण्डीकर उपाख्य रामभाऊ पातोण्डीकर को शाल और श्रीफल भेँटकर सम्मानित किया । 15 मार्च 1931 को जन्मे श्री रामभाऊ पातोण्डीकर संस्कृत विषय से एम.ए. , बी.टी. और हिन्दी साहित्य विशारद हैँ । वे बाल्यकाल से ही संघ के स्वयंसेवक हैँ । 1949 से 1955 तक प्रतिकूलता के समय मेँ वे संघ के प्रचारक रहे । एक योग्य शिक्षक के रूप मेँ आपने छात्रोँ की अनेक पीढ़ियोँ को सुसंस्कृत बनाने का स्तुत्य कार्य किया । 1991 मेँ शासकीय सेवा से निवृत्त होने के बाद उन्होँने भोपाल मेँ विद्या भारती के आवासीय विद्यालय शारदा विहार मेँ मार्गदर्शक के रूप मेँ अपनी सेवाएँ दीँ । सन् 1991 से 2003 तक वे विद्या भारती और संस्कृत भारती , धुले ( महाराष्ट्र ) के कार्य मेँ सहयोगी रहे । इस विमोचन कार्यक्रम मेँ अपने संक्षिप्त उद्‌बोधन मेँ श्री रामभाऊ पातोण्डीकर ने ' सुभाषित परिमलः ' की पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए अपने संस्कृत अनुराग के लिए श्रद्धेय भाऊ साहब भुस्कुटे को अपना प्रेरणास्रोत और गुरू बताया । उन्होँने कहा कि मुझ पर भाऊ साहब जी के अनन्त उपकार हैँ और यह पुस्तक उन्हीँ की कृपा का परिणाम है । संस्कृत के सुभाषितोँ की चर्चा करते हुए उन्होँने कहा कि सुभाषित कठिनाईयोँ के समय हमारा उचित मार्गदर्शन करते हैँ । इस बारे मेँ उन्होँने स्वयं का एक अनुभव भी सुनाया । उन्होँने कहा कि 1980 मेँ उनका स्थानान्तरण बुरहानपुर से कोई हजार मील सुदूर छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गाँव मेँ कर दिया गया । तब कुछ मित्रोँ ने कहा कि फलाँ मंत्री या फलाँ नेता के पास जाकर तबादला रद्द कराने के लिए प्रार्थना करना चाहिए । ऐसे कठिन समय मेँ निम्नलिखित सुभाषित ने मेरा मार्गदर्शन किया ।
'' रे रे चातक सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूयतताम । अम्बोधाः बहवोऽपि सन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः ॥ केचिद्‌ वृष्टिभिरार्द्रयन्ति धरणीँ गर्जन्ति केचिदवृथा । यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः ॥
अर्थात - रे मित्र चातक ! सावधान चित्त से जरा एक क्षण मेरी बात सुनो । आकाश मेँ बादल तो बहुत इकट्ठा हो गए हैँ पर वे सब एक जैसे नहीँ । उनमेँ से कुछ अपनी जलवृष्टि से धरती को सराबोर कर देते हैँ तो कुछ व्यर्थ ही गर्जना करते रहते हैँ । तब जिस किसी को तुम देखो उसी के सामने गिड़गिड़ाना बंद करो , सभी से याचना मत करो ।
इस अवसर पर श्री होसबले जी ने ' सुभाषित परिमलः ' के सम्पादक और शासकीय राज्य स्तरीय विधि महाविद्यालय भोपाल के प्राध्यापक डॉ. विश्वास चौहान को भी शाल व श्रीफल भेँट कर सम्मानित किया । श्रद्धेय भाऊ साहब भुस्कुटे स्मृति व्याख्यानमाला समिति की ओर से श्री रामभाऊ पातोण्डीकर को एक अभिनन्दन पत्र भेँट किया गया जिसका वाचन श्री रमेश दीक्षित ने किया । निश्चित रूप से
' सुभाषित परिमलः ' संस्कृत अनुरागियोँ के लिए अत्यंत उपयोगी पुस्तक सिद्ध होगी । 30 रुपये की सहयोग राशि पुस्तक के महत्व को देखते हुए कम ही जान पड़ती है । पुस्तक मेँ लगभग 250 सुभाषित संकलित हैँ जिनके हिन्दी अर्थ भी साथ ही दिए गए हैँ । पुस्तक का प्रकाशन टिमरनी की श्रद्धेय भाऊ साहब भुस्कुटे स्मृति व्याख्यानमाला समिति द्वारा किया गया है । पुस्तक प्राप्त करने के इच्छुक निम्नलिखित पतोँ पर सम्पर्क कर सकते हैँ ।
* श्री प्रकाश सोलापुरकर , सरस्वती उ.मा. आवासीय विद्यालय , शारदा विहार परिसर , केरवा बाँध मार्ग , भोपाल ( म.प्र.) दूरभाष-9425029512 * डॉ. अतुल गोविन्द भुस्कुटे गढ़ी , टिमरनी , जिला - हरदा ( म.प्र.)
दूरभाष -
07573-23 0283
* बी/9 , स्प्रिँग फिल्ड टॉवर वीर सावरकर नगर, गंगापुर मार्ग , नासिक , पिन-422093
दूरभाष -
0253-2342168
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

गुरुवार, 27 मई 2010

तिमिर हरणी - भाग - 6

एक लम्बे अन्तराल के बाद इस श्रृंखला का छठवाँ भाग प्रस्तुत कर रहा हूँ । पिछले भाग मेँ मैँने हंस कुमार जी की सहृदयता एवं अपने जमाने के सुप्रसिद्ध अभिनेता सोहराब मोदी के टिमरनी प्रवास का विस्तार से वर्णन किया था । इस भाग मेँ टिमरनी की नदी पर बने राधाबाई के पुल के निर्माण का रोचक इतिहास बताने का प्रयास करूँगा । सबसे पहले यह बताना समीचीन होगा कि आख़िर इस पुल को आम लोग राधाबाई का पुल और नदी को राधाबाई की नदी क्योँ कहते हैँ ?
बात थोड़ी ज्यादा पुरानी है । टिमरनी के तत्कालीन जागीरदार श्रीमन्त सरदार भुस्कुटे जी के परिवार मेँ एक अति धार्मिक विचारोँ की महिला थीँ जिनका नाम राधाबाई था । राधाबाई अपने पति की मृत्यु के बाद उनके शव के साथ सती हो गई थीँ । टिमरनी के सम्पन्न और कुलीन घरानोँ मेँ एक परम्परा होती थी कि उनके परिवार मेँ किसी की मृत्यु होने पर शव का अन्तिम संस्कार सार्वजनिक श्मशान मेँ न किया जाकर अपने खेत अथवा अपने मालिकाना हक़ की खाली पड़ी भूमि पर किया जाता था । आज भी यह परम्परा टिमरनी के कुछ परिवारोँ मेँ यथावत कायम है । भुस्कुटे परिवार मेँ भी ऐसी ही परम्परा थी । बाद मेँ स्वनामधन्य श्रद्धेय भाऊ साहब भुस्कुटे जी ने अपनी पूज्य माताजी की दाह क्रिया सार्वजनिक श्मशान ' मुक्तिधाम ' मेँ करके अपने परिवार की इस परम्परा को तोड़ दिया । परन्तु इस परम्परा के अनुसार ही राधाबाई के स्वर्गीय पति का दाह संस्कार टिमरनी की इसी नदी के किनारे किया गया था और राधाबाई सती का बाना पहन कर अपने पति के शव के साथ चिता पर बैठकर सती हो गई थीँ । बस तभी से टिमरनी का श्रद्धावान समाज इस नदी को राधाबाई की नदी कहकर सम्बोधित करने लगा और स्वाभाविक ही इस नदी पर बनने वाले पुल को भी राधाबाई के पुल की संज्ञा मिल गई । जिस स्थान पर राधाबाई सती हुई थीँ वहाँ पर आज भी एक समाधि बनी हुई है । पुल से पश्चिम की दिशा मेँ नदी के उत्तरी किनारे पर थोड़ा दूर हटकर यह समाधि झाड़ियोँ और घास फूस के झुरमुटोँ के बीच स्थित होने से आमतौर पर दृष्टिगोचर नहीँ होती है । यह समाधि उपेक्षा और रखरखाव के अभाव मेँ जीर्ण शीर्ण हो गई है लेकिन इसमेँ जड़े पत्थरोँ पर नक्काशी का बेजोड़ काम इसकी भव्यता और सुन्दरता का बखूबी बयान करते हैँ । नदी मेँ आने वाली बाढ़ और देखरेख की कमी के चलते इस ऐतिहासिक धरोहर के अनमोल पत्थर उखड़ कर इधर - उधर बिखर रहे हैँ जिसके कारण इस समाधि के अस्तित्व पर संकट छाया हुआ है । कुछ असामाजिक तत्वोँ ने भी इसे क्षति पहुँचाई है और इसके पत्थरोँ के चोरी होने का खतरा भी बना हुआ है । इसी समाधि के पास पत्थरोँ से पटा एक छोटा सा घाट भी था जिसे सती घाट कहते थे । अब तो इस सती घाट का केवल नाम ही शेष है । अलबत्ता इस घाट के अवशेष के रूप मेँ इक्का - दुक्का पत्थर इसके अतीत की कहानी अवश्य कह रहे हैँ । कभी सदाधारा रहने वाली यह छोटी सी नदी अब निराधारा हो चुकी है और इसके अस्तित्व पर भी संकट के बादल मँडरा रहे हैँ । इस नदी के उद्धार को लेकर इस श्रृंखला मेँ आगे कुछ लिखने का प्रयास जरूर करूँगा । यहाँ पर यह ऐतिहासिक तथ्य बताना भी उचित होगा कि इस नदी के पास वाले मैदान पर किसी जमाने मेँ राधाबाई की पुण्य स्मृति मेँ प्रतिवर्ष एक भव्य मेले का भी आयोजन होता था । आज भी टिमरनी मेँ कुछ पुरानी पीढ़ी के ऐसे लोग मौजूद हैँ जिन्होँने इस मेले का आनन्द उठाया है और रायझूलोँ का लुत्फ़ लिया है । बुज़ुर्ग़ बताते हैँ कि एक बार इस मेले मेँ भयंकर अग्निकाण्ड हो गया था जिसमेँ दूकानदारोँ को भारी आर्थिक हानि उठानी पड़ी थी । बस तभी से यह मेला बन्द हो गया ।
आइये ! अब राधाबाई के पुल के निर्माण की रोचक गाथा भी सुन लेँ । पिछले भाग मेँ मैँने लिखा था कि पुल बनने के पूर्व नदी की बाढ़ का पानी गाँव मेँ घुस जाया करता था । कई बार अतिवृष्टि से बाढ़ का पानी टिमरनी की गढ़ी के मुख्य द्वार तक भी आ जाया करता था । ऐसे मेँ बड़ी भयावह स्थिति उत्पन्न हो जाती थी । लोगोँ की इस परेशानी को समझते हुए हंस कुमार जी ने तत्कालीन अँग्रेज सरकार को नदी पर पुल बनाने की योजना सुझाई जिसे अँग्रेजी शासन ने तुरन्त स्वीकार कर लिया । ऐसा लगता है कि इस पुल के वास्तुकार भी स्वयं हंस कुमार जी ही थे क्योँकि राधास्वामी हाई स्कूल और इस पुल की बाह्य संरचना मेँ एक ही व्यक्ति की परिकल्पना अभिव्यक्त होती है । जो भी हो हंस कुमार जी के मार्गदर्शन मेँ जब पुल के निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ तो खम्भोँ के लिए पानी के बीच गड्ढे खोदे जाने लगे । अचानक ही एक गड्ढे की खुदाई के दौरान पानी का एक काफ़ी मोटा स्रोत फूट पड़ा । यह स्रोत इतना जबरदस्त था कि पानी की मोटी धार आसमान मेँ लगभग 50 फीट की ऊँचाई तक जा रही थी । पानी के इस स्रोत को रोकने के सभी स्थानीय प्रयास विफल हो गए । पानी के इस स्रोत का दबाव इतना अधिक था कि जब इसे रोकने के लिए इसके गड्ढे मेँ लकड़ी की मोटी - मोटी म्याल डाली गईँ तो पानी ने उन्हेँ कई फीट ऊपर उछाल दिया । प्रकृति के इस चमत्कार को देखने के लिए न केवल टिमरनी बल्कि आसपास के कई गाँवोँ से भी जन सैलाब उमड़ पड़ा । जिसने भी सुना वो इस अजूबे को देखने के लिए दौड़ पड़ा । कहते हैँ कि यह चमत्कार लगातार कई दिनोँ तक चलता रहा था । अन्त मेँ नागपुर तथा अन्य स्थानोँ से विशेषज्ञ बुलाए गए और उन्होँने इस स्रोत मेँ सीमेण्ट की भरी की भरी अनेक बोरियाँ झोँक डालीँ तब कहीँ जाकर पानी का दबाव कम हुआ और आखिर मेँ उसे बन्द करने मेँ सफलता प्राप्त हुई । इस प्रकार राधाबाई के इस पुल के निर्माण का रोचक इतिहास जो कि समय के साथ धुँधला पड़ता जा रहा था टिमरनी के बारे मेँ जानने की इच्छुक नई पीढ़ी के लिए एक अच्छी जानकारी के रूप मेँ मैँने सहेजने का प्रयास किया है । मुझे विश्वास है कि जिज्ञासु पाठक इस पर अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराने हेतु मुझे अवश्य ही ई मेल करेँगे ।
धन्यवाद ।
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

शनिवार, 27 मार्च 2010

तिमिर हरणी - भाग 5

इस लेखमाला के चौथे भाग के बारे मेँ एक अनाम पाठक ने मुझे ई मेल भेजते हुए लिखा है कि न तो मैँ टिमरनी के बारे मेँ कुछ जानता हूँ और न ही हंसकुमार जी के बारे मेँ , पर आपका लेख पढ़कर यह मालूम हुआ कि पहले हंसकुमार जी जैसे लोग भी होते थे । उन्होँने ठीक ही लिखा है क्योँकि आजकल नि:स्वार्थ समाजसेवी और परोपकारी लोग दुर्लभ हैँ । उन सज्जन ने यह अनुमान भी लगाया है कि हंसकुमार जी का घर भी आलीशान रहा होगा । उन्होँने मुझसे यह आग्रह भी किया है कि मैँ अपने इस ब्लॉग मेँ उनके घर का चित्र भी लगाऊँ । पर मुझे खेद है कि मैँ उनके इस अनुरोध को पूरा नहीँ कर पा रहा हूँ । इसका एक कारण तो यह है कि वे आगरा के निवासी थे और संभवत: उनका सम्बन्ध पंजाब से था । दूसरा कारण यह है कि उन्होँने टिमरनी मेँ अपना कोई घर नहीँ बनाया था । मैँने सुना है कि वे यहाँ रेल्वे स्टेशन के पास स्थित राजा बरारी एस्टेट के परिसर मेँ एक छोटे से आवास मेँ रहा करते थे । ये तमाम बातेँ मैँने अपने ताऊजी स्व. श्री राधेलाल दीक्षित और टिमरनी के अन्य बुज़ुर्ग़ोँ से सुनी हैँ । मेरे ताऊजी के साथ हंसकुमार जी के बड़े मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे । हमारे संयुक्त परिवार मेँ हमारे एक काकाजी श्री कुञ्जीलाल दीक्षित थे । हम सभी परिजन उन्हेँ अण्णा कहते थे । बचपन मेँ भयंकर चेचक निकलने के कारण अण्णा गूँगे और बहरे हो गए थे । अण्णा गूँगे - बहरे अवश्य थे लेकिन अपने हाथोँ के इशारोँ और हाव - भाव से अभिव्यक्ति की विलक्षण क्षमता उनमेँ थी । संवेदनशील हंसकुमार जी जब भी अण्णा को देखते थे तो उन्हेँ बहुत दु:ख होता था । इस श्रृंखला के पिछले भाग मेँ मैँने लिखा था कि हंसकुमार जी का अँग्रेजोँ और देश की तत्कालीन नामी गिरामी हस्तियोँ से अच्छा परिचय था । इसी तरह बम्बई के कुछ प्रसिद्ध डॉक्टरोँ को भी वे जानते थे । वे अण्णा को लेकर बम्बई गए और वहाँ उनका सभी प्रकार का परीक्षण करवाया । लगभग सभी डॉक्टरोँ ने अण्णा के इलाज को असम्भव बताया । इतना ही नहीँ हंसकुमार जी ने अण्णा को बम्बई के लगभग सभी दर्शनीय स्थानोँ की सैर भी कराई । हंसकुमार जी का बम्बई की अनेक फिल्मी हस्तियोँ से भी अच्छा परिचय था । सुप्रसिद्ध कलाकार और निर्माता निर्देशक सोहराब मोदी भी उनमेँ से एक थे । उस समय सोहराब मोदी का अपना थियेटर समूह था और वे देश भर मेँ थियेटर के साथ नाटकोँ का प्रदर्शन किया करते थे । हंसकुमार जी के आग्रह पर सन 1925 के आसपास सोहराब मोदी अपने थियेटर समूह के साथ टिमरनी आए थे और क़रीब एक माह तक अपने शानदार नाटकोँ का प्रदर्शन कर टिमरनी और आसपास के ग्रामीणोँ का खूब मनोरंजन किया । उस जमाने मेँ मनोरंजन के कोई अन्य साधन न होने से सोहराब मोदी के इन नाटकोँ की बड़ी चर्चा रही थी । टिमरनी मेँ प्राचीन शंकर मन्दिर के पीछे सरदार भुस्कुटे की एक पायगा थी जो चारोँ तरफ से दीवार से घिरी थी और अन्दर प्रवेश के लिए केवल एक बड़ा सा दरवाजा था । यहाँ ढोर , बैल आदि बाँधे जाते थे । सोहराब मोदी ने थियेटर के प्रदर्शन के लिए इसी स्थान को चुना था । महीने भर तक इस जगह पर मानो मेला सा लगा रहा था । सोहराब मोदी के साथ आए कलाकारोँ मेँ तत्कालीन अभिनय और संगीत जगत के बेजोड़ लोग भी थे । सोहराब मोदी स्वयं कला के बहुत बड़े पारखी थे । थियटर मेँ हारमोनियम बजाने के लिए जो कलाकार था उसकी सधी हुई उँगलियाँ हारमोनियम की रीडोँ पर मानो नृत्य करती थीँ । संयोग से एक दिन उस कलाकार को बुख़ार आ गया । सोहराब मोदी प्रदर्शन मेँ व्यवधान की आशंका से बड़े चिन्तित हो गए । उन्होँने हंसकुमार जी के पास जाकर अपनी समस्या बयान की कि अब ऐसी स्थिति मेँ क्या किया जाए ? तब हंसकुमार जी ने कहा घबराइये मत हमारी छोटी सी टिमरनी मेँ भी एक महान कलाकार रहते हैँ जो कई प्रकार के वाद्य बजाने मेँ सिद्धहस्त हैँ , आप उनसे अपना काम चला लीजिए । टिमरनी के वे कलाकार कोई और नहीँ बल्कि स्व. शिवनारायण जी बिल्लौरे ' पेटीमास्टर ' थे । अच्छी हारमोनियम बजाने के कारण ही लोग उन्हेँ पेटीमास्टर के नाम से जानते थे । हंसकुमार जी की बात सुनकर सोहराब मोदी ने कहा कि टिमरनी का कितना भी बड़ा कलाकार हमारे थियेटर मेँ चल नहीँ पाएगा । इस पर हंसकुमार जी ने कहा कि आप एक बार उनकी कला को देख तो लीजिए । हंसकुमार जी की बात मानकर सोहराब मोदी इसके लिए तैयार हो गए । दोनोँ मिलकर श्री शिवनारायण जी बिल्लौरे ' पेटीमास्टर ' के घर गए और उनका हारमोनियम वादन देखा - सुना । सोहराब मोदी उनकी कला को देखकर आश्चर्य मेँ पड़ गए और बोले कि इतना महान कलाकार यहाँ छोटी सी टिमरनी मेँ क्योँ पड़ा है ? उन्होँने पेटीमास्टर जी को उनके साथ बम्बई चलने का अनुरोध किया लेकिन न मालूम किस कारण से उन्होँने सोहराब मोदी को मना कर दिया । शायद तब बम्बई के फिल्मी वातवरण को एक परम्परावादी ब्राह्मण होने के कारण पेटीमास्टर जी ने अच्छा नहीँ समझा होगा । यूँ कहा जाए कि फिल्म जगत स्व. बिल्लौरे जी की कला से वंचित रह गया या स्वयं बिल्लौरे जी आगे बढ़ने के एक अच्छे अवसर से चूक गए । जो भी हो मोदी थियेटर का वह हारमोनियम वादक जितने दिन तक बीमार रहा उतने दिन तक बिल्लौरे जी ने उसकी जगह हारमोनियम वादन करके नाटकोँ का प्रदर्शन यथावत जारी रखा । स्व. बिल्लौरे जी का यह सहयोग सोहराब मोदी कभी नहीँ भूले ।

मंगलवार, 16 मार्च 2010

भारतीय नववर्ष

वर्ष प्रतिपदा या गुड़ी पड़वाँ का पवित्र पर्व हम सभी भारतवासियोँ के लिए गर्व और आनन्द का विषय है लेकिन खेद के साथ कहना पड़ता है कि हमारे द्वारा पश्चिम के अति अन्धानुकरण के कारण इस पर्व से जुड़े धार्मिक , सामाजिक , ऐतिहासिक और राष्ट्रीय महत्व से नई पीढ़ी अवगत नहीँ है । यदि यही हालत रही तो हमारी सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान का संकट उपस्थित होने का डर है । आईए ! आज इस पुण्य अवसर पर हम कुछ महत्वपूर्ण तथ्योँ का स्मरण कर लेँ ।
1 - इस दिन जगत्पिता ब्रह्मा जी ने ॐकार के ब्रह्मनाद के निरूपण के साथ ही सृष्टि की रचना की थी ।
2 - विश्व की प्राचीनतम एवं विज्ञान सम्मत कालगणना का आरम्भ इसी दिन से हुआ था ।
3 - शक्ति की उपासना के पर्व चैत्रीय नवरात्र का प्रथम दिन ।
4 - अयोध्या मेँ इसी दिन भगवान श्री राम के राज्याभिषेक के साथ ही भारतवर्ष मेँ रामराज्य स्थापित हुआ था ।
5 - आज ही के दिन धर्मराज युधिष्ठिर का राजतिलक हुआ था ।
6 - आज से 2066 वर्ष पूर्व सम्राट विक्रमादित्य ने आक्रमणकारी शकोँ को पराजित कर विक्रम सम्वत प्रारम्भ किया था । शत्रु शकोँ को परास्त करने के कारण ही उन्हेँ शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है ।
7 - आज से 1931 वर्ष पूर्व पुन: शकोँ ने आक्रमण किया जिन्हेँ सम्राट शालिवाहन ने परास्त कर शालिवाहन सम्वत प्रारम्भ किया था ।
8 - आज ही के दिन वरुणावतार श्री झूलेलाल जी का भी इस धराधाम पर अवतरण हुआ था ।
9 - सिक्ख पंथ के द्वितीय गुरु अंगद देव जी का भी आज के दिन ही जन्म हुआ था ।
10 - उत्तर भारत के महान हिन्दू योद्धा हेमचन्द्र विक्रमादित्य ने मुग़ल बादशाह अक़बर पर आज ही के दिन ऐतिहासिक विजय प्राप्त की थी ।
11 - महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आज ही के दिन आर्य समाज की स्थापना की थी ।
12 - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक और जन्मजात देशभक्त आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी का जन्म भी आज के महत्वपूर्ण दिवस को ही हुआ था। ऐसे महान पर्व पर समस्त सुधी पाठकोँ , मित्रोँ , शुभ - चिन्तकोँ , परिजन और पुरजन को अनेकानेक शुभ - कामनाएँ और बधाई ।
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

तिमिर हरणी - भाग 4

टिमरनी और टिमरनी के निवासियोँ की उन्नति मेँ यहाँ के राधास्वामी हाई स्कूल का अविस्मरणीय योगदान है । इस स्कूल की स्थापना सन 1929 मेँ हुई थी । इसके पहले यहाँ केवल एक प्राथमिक शाला ही थी जो शंकर मन्दिर के पास स्थित भवन मेँ लगती थी । आज भी यह स्कूल उसी प्राचीन भवन मेँ लगता है , यह बात अलग है कि अब इसका दर्जा मिडिल स्कूल का हो गया है और इसके परिसर मेँ कुछ नए कक्षोँ का निर्माण भी हो गया है । बाद मेँ एक कन्या प्राथमिक शाला भी खुल गई जो दत्त मन्दिर के पीछे एक पुराने भवन मेँ लगती थी । इस भवन का अब कोई अस्तित्व नहीँ बचा है । अब यहाँ केवल मैदान है जो आजकल महावीर ग्राउण्ड के नाम से जाना जाता है और अब यहाँ धार्मिक और सामाजिक आयोजन होते रहते हैँ । उस समय आगे की पढ़ाई के लिए केवल हर दृष्टि से सक्षम लोग ही अपने बच्चोँ को बाहर भेज सकते थे । इस प्रकार उच्च शासकीय शिक्षा की तत्कालीन व्यवस्था से टिमरनी के लोग लगभग वंचित ही रहते थे । ऐसे समय मेँ हंसकुमार नामक एक उच्च शिक्षित विद्वान आगरा से टिमरनी आए । वे जंगल के ठेकेदार थे , उन्होँने टिमरनी के पास के जंगलोँ का ठेका लिया हुआ था । अँग्रेज अधिकारियोँ के साथ उनके बहुत ही अच्छे सम्बंध थे । टिमरनी का वातावरण उन्हेँ कुछ ऐसा भाया कि वे यहीँ के होकर रह गए । यहाँ के प्रतिष्ठित लोगोँ के साथ उनका उठना - बैठना था । हंसकुमार दयालबाग आगरा के राधास्वामी सत्संग नामक सम्प्रदाय के अनुयायी थे । इस सम्प्रदाय के पाँचवे गुरु सर साहब जी महाराज थे जिन्हेँ आदर से सभी हुजूर साहब कहते थे । वे संभवत: हंसकुमार जी के बड़े भाई थे । हंसकुमार जी ने हुजूर साहब को टिमरनी आने का आग्रह किया । इस प्रकार हुजूर साहब का टिमरनी मेँ शुभ आगमन हुआ । टिमरनी के गण्यमान्य सज्जनोँ की एक बैठक हंसकुमार जी ने आयोजित की जिसमेँ हुजूर साहब भी उपस्थित हुए । इस बैठक मेँ टिमरनी मेँ शिक्षा की जरूरत पूरी करने के लिए हाई स्कूल खोलने की आवश्यकता पर चर्चा हुई । टिमरनी के तत्कालीन परम्परावादी लोगोँ ने यहाँ हाई स्कूल खोले जाने का पुरजोर विरोध किया । तब हुजूर साहब ने हंसकुमार जी से कहा कि जब यहाँ के लोग नहीँ चाहते तो आप क्योँ हाई स्कूल खोलने की ज़िद कर रहे हैँ । तब हंसकुमार जी ने कहा कि ये लोग शिक्षा के महत्व को समझ नहीँ पा रहे हैँ और इसीलिए यहाँ हाई स्कूल शुरु किए जाने की जरूरत है । हंसकुमार जी के अकाट्य तर्कोँ से सहमत होते हुए हुजूर साहब ने अन्त मेँ हाई स्कूल प्रारंभ करने की अनुमति दे दी । इस प्रकार 1929 मेँ टिमरनी मेँ राधास्वामी हाई स्कूल की स्थापना हुई । समय गवाह है कि हंसकुमार जी की सोच कितनी दूरगामी थी । आज इस स्कूल से पढ़कर निकले विद्यार्थियोँ ने देश के विभिन्न क्षेत्रोँ मेँ प्रतिष्ठित पदोँ पर कार्य करते हुए राष्ट्र और समाज की अभूतपूर्व सेवा की है । प्रारंभ मेँ इस स्कूल की कक्षाएँ रेल्वे फाटक के पास स्थित राजा बरारी एस्टेट के तत्कालीन टीन शेडोँ मेँ लगा करती थीँ । अब इस स्कूल को एक विशाल परिसर और भवन की दरकार थी । हंसकुमार जी ने अपनी ऊँची पहुँच और वाकपटुता से स्कूल के लिए रेल्वे स्टेशन और बस्ती के बीच स्थित एक खेत हासिल किया जहाँ 1932 मेँ राधास्वामी हाई स्कूल की बहुत ही ख़ूबसूरत और बेजोड़ इमारत तामीर हुई । ऐसा कहते हैँ कि इस नायाब भवन का मानचित्र स्वयं हंसकुमार जी ने तैयार किया था । इस इमारत का निर्माण हंसकुमार जी ने स्वयं अपनी देखरेख मेँ करवाया था । इसकी एक - एक ईँट पर हंसकुमार जी का संक्षिप्त नाम H K अंकित है । यूँ तो हंसकुमार जी ने समाज की भलाई के अनेक कार्य टिमरनी मेँ किए हैँ लेकिन राधास्वामी हाई स्कूल की स्थापना करके उन्होँने जो महान कार्य किया है उसके लिए उन्हेँ हमेशा याद रखा जायेगा । टिमरनी के लोग उनके इस उपकार के लिए सदैव ऋणी रहेँगे । टिमरनी के पुराने लोग आज भी हंसकुमार जी को भावुक होकर याद करते हैँ । कहते हैँ कि तब टिमरनी मेँ अँग्रेजी बोलने और समझने वाले केवल दो ही लोग थे एक हंसकुमार जी और दूसरे श्री जगन्नाथराव जी मुजुमदार । तब यदि किसी के यहाँ तार ( टेलीग्राम ) आता था तो इसका यही अर्थ होता था कि किसी की मौत हो गई है । तार मिलते ही घर मेँ कोहराम मच जाता था । तब अँग्रेजी मेँ लिखे हुए उस तार को पढ़वाने के लिए इन्हीँ दो सज्जनोँ के पास जाना पड़ता था । कई बार तार मेँ किसी खुशी की ख़बर भी होती थी लेकिन जब तक उसे इनसे पढ़वाया जाता था तब तक घर मेँ मातम का ही माहौल रहता था । एक समय था जबकि टिमरनी मेँ किसी के पास सायकल भी नहीँ थी ऐसे समय मेँ हंसकुमार जी के पास मोटरकार हुआ करती थी । चूँकि हंसकुमार जी का जंगलोँ के ठेके का काम था और इस कारण उन्हेँ राजा बरारी के जंगलोँ मेँ बार - बार जाना - आना पड़ता था इस कारण वे मोटरकार रखते थे । बच्चे उनकी मोटरकार को देखने के लिए दौड़ा करते थे । उस जमाने मेँ हंसकुमार जी ने टिमरनी से राजाबरारी के जंगल तक टेलीफोन की लाइन अपने स्वयं के खर्चे से डलवाई थी जिसके तारोँ के लिए लकड़ी की बल्लियाँ खड़ी की गई थीँ । आज कम्प्यूटर और मोबाइल फोन के युग मेँ ये बातेँ अविश्वसनीय भले ही लगेँ मगर हक़ीकत तो यही है । कहते हैँ कि उस जमाने मेँ टिमरनी के हर छोटे - बड़े काम मेँ केन्द्रीय भूमिका हंसकुमार जी की ही होती थी । टिमरनी की नदी के पुल का निर्माण भी हंसकुमार जी की ही देन है जिसे राधाबाई का पुल कहते हैँ । इस पुल के निर्माण से नदी की बाढ़ का पानी गाँव मेँ घुसना बन्द हो गया वरना पहले सारा गाँव जलमग्न हो जाया करता था और हर साल लोगोँ को बड़ी परेशानी और नुकसान उठाना पड़ता था ।

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

बुरा न मानो होली है !

जब सबके ही मुँह
काले होँ ,
फिर किसका मुँह
हम लाल करेँ ?
इस असमंजस मेँ बैठे हैँ ,
किस रंग का
इस्तेमाल करेँ ?
- रमेश दीक्षित , टिमरनी

सभी मित्रोँ , परिचितोँ ,
शुभ - चिन्तकोँ , और परिजनोँ को होली के रंग - बिरंगे पर्व की हार्दिक शुभ - कामनाएँ

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

श्री उत्तमसिँह सोनकिया

कल 9 फरवरी को सुबह मोबाइल की घण्टी सुनकर नीँद खुली । भाई सुरेन्द्र धनगर ने यह मनहूस ख़बर दी कि रात को टिमरनी के पूर्व विधायक श्री उत्तमसिंह सोनकिया का हृदयगति रुक जाने से दुखद निधन हो गया है । एक धक्का सा लगा , मन मेँ अनेक विचार आने लगे । अभावोँ मेँ पला , संघर्षोँ से खेला एक अत्यन्त सहज - सरल व्यक्ति समाजसेवा के क्षेत्र मेँ काम करते हुए पहले टिमरनी नगर पंचायत का पार्षद और फिर टिमरनी का विधायक बना । वे एक मिलनसार और जमीन से जुड़े इंसान थे । मैँ उन्हेँ छात्र जीवन से ही जानता था । वे स्वभाव से गम्भीर दिखते थे लेकिन विनोदप्रिय भी थे । धर्म और ईश्वर मेँ उनकी अगाध श्रद्धा थी । वे टिमरनी के अब तक के सभी विधायकोँ मेँ अकेले ऐसे विधायक थे जो टिमरनी के ही निवासी थे । पिछले एक सप्ताह मेँ टिमरनी पर यह दूसरा वज्रपात था । इसके पूर्व युवा व्यवसायी भाई मुकेश जैन एक सड़क हादसे का शिकार होकर हमसे बिछुड़ गए । दोनोँ को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि ।

रविवार, 31 जनवरी 2010

तिमिर हरणी

' तिमिर हरणी ' श्रृंखला का तीसरा भाग आज आपके समक्ष प्रस्तुत है । पहले और दूसरे भाग मेँ ' टिमरनी ' के नाम और उसकी प्राचीनता की चर्चा की गई थी । इस श्रृंखला मेँ रुचि रखने वाले होशंगाबाद निवासी युवा कवि और ' सरल - चेतना ' पत्रिका के सम्पादक भाई हेमन्त रिछारिया ने मुझे कुछ महत्वपूर्ण और उपयोगी सुझाव दिए हैँ । उनके सुझावोँ पर अमल करते हुए इस श्रृंखला को लिखने का प्रयत्न करूँगा । मैँ भाई हेमन्त रिछारिया को उनके सुझावोँ के लिए हृदय से धन्यवाद देता हूँ ।
टिमरनी मेँ जो गढ़ी है उसके मुख्य प्रवेश द्वार के अन्दर आगे एक छोटा सा प्राचीन गणेश जी का मन्दिर है । इस मन्दिर के गर्भ गृह मेँ लगभग रेँगकर ही प्रवेश किया जा सकता है । गर्भ गृह अत्यंत संकीर्ण होने से इसके अन्दर एक बार मेँ केवल एक व्यक्ति ही भली भाँति पूजा अर्चना कर सकता है । यह मन्दिर लगभग छुपा हुआ है । बाहर से देखने पर यह एक छोटा सा मकान जैसा दिखाई देता है । अनभिज्ञ व्यक्ति बाहर से देखकर इसे घर ही कहेगा । गणपति की साधना - आराधना करने वालोँ के लिए यह एक आदर्श स्थान है । कहा जाता है कि टिमरनी मेँ गणेश जी का यह सबसे प्राचीन और अत्यंत सिद्ध मन्दिर है तथा यहाँ साधना करने से साधक को कई गुना फल प्राप्त होता है । कभी इस मन्दिर के ओसारे मेँ ब्राह्मण बटुक भगवान गणेश की साक्षी मेँ वेदाध्ययन किया करते थे और अनेक विद्वान पण्डित उन्हेँ धर्म , ज्योतिष और शास्त्रोँ की उच्च कोटि की शिक्षा दिया करते थे जिसके कारण टिमरनी विद्वानोँ की नगरी के रूप मेँ जानी जाती थी । वेदाध्ययन की यह परम्परा काल और परिस्थितियोँ के चलते आगे नहीँ चल सकी लेकिन यह स्वाभाविक ही है कि जिस प्रांगण मेँ कभी वेदोँ के स्वर गूँजे होँ वह तो सिद्ध स्थान होगा ही । कालान्तर मेँ इस स्थान पर राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रेमियोँ ने अपनी साहित्यिक गतिविधियाँ प्रारंभ कर दीँ । इन साहित्यिक हलचलोँ के आज़ादी के बाद तक चलने की जानकारी मिलती है । आज़ादी के पूर्व साहित्य की चर्चाओँ और कार्यक्रमोँ का एक केन्द्र बालाजी का मन्दिर भी हुआ करता था । जहाँ आजकल विनोद कुमार गुलाबचन्द जैन की हार्डवेयर की दूकान है वहाँ कभी एक अत्यन्त समृद्ध पुस्तकालय और वाचनालय हुआ करता था । यह जगह भी टिमरनी के कुछ विशेष आयोजनोँ और बैठकोँ के लिए निश्चित थी । एक पुस्तकालय और वाचनालय गढ़ी के प्रवेश द्वार के दायीँ ओर स्थित भवन मेँ भी चला करता था । इन सभी स्थानोँ पर साहित्यिक , सांस्कृतिक और स्वतंत्रता के आन्दोलनोँ से सम्बधित राजनैतिक गतिविधियाँ साथ - साथ चला करती थीँ । साहित्यिक कार्यक्रमोँ मेँ तब कवि गोष्ठियाँ ही प्रमुख रूप से होती थीँ । इन कवि गोष्ठियोँ मेँ तब ' समस्यापूर्ति ' का खूब चलन था । एक पंक्ति या फिर एक शब्द दे दिया जाता था जिसका उपयोग प्रत्येक कवि को अपनी कविता मेँ करना होता था । समस्यापूर्ति के लिए कवि गण अपनी सम्पूर्ण क्षमता और योग्यता का परिचय देते हुए श्रेष्ठ कविताएँ रचते थे जिनमेँ अधिकतर कवित्त या सवैया छन्द होते थे । समस्यापूर्ति के लिए दी गई ' पेड़ हिलै पै हिलै नहीँ पत्ता ' और ' जल छोड़ के मछली वृक्ष चढ़ी ' जैसी पंक्तियाँ अनेक पुराने बुजुर्गोँ को आज भी अच्छी तरह से स्मरण हैँ । कौन कवि किस चतुराई से समस्या की पूर्ति करके लाता है इसकी जिज्ञासा सभी को हुआ करती थी और इसीलिए इन गोष्ठियोँ मेँ कवियोँ के अलावा श्रोताओँ की भी अच्छी खासी उपस्थिति रहती थी । साहित्य और मातृभाषा के प्रति समर्पित कुछ उत्साही युवक तब एक हस्तलिखित पत्रिका ' मित्र ' का प्रतिमाह प्रकाशन करते थे । प्रत्येक अंक का सम्पादक अलग होता था । इसमेँ लेख , कविताएँ , कहानियाँ , व्यंग्य लेख , चित्रकला , व्यंग्य चित्र और सम्पादकीय आदि वो सब कुछ होता था जो एक श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका के लिए लाजिमी होता है । इस हस्तलिखित पत्रिका का एक दुर्लभ अंक मेरे पास जीर्ण -शीर्ण अवस्था मेँ मौजूद है जिसे मैँने धरोहर की तरह सँभालकर रखा है । इस पत्रिका के अन्य अंक टिमरनी मेँ कुछ परिवारोँ मेँ पुराने कागज पत्रोँ के बीच पड़े हो सकते हैँ । मेरे जैसे व्यक्ति के लिए यदि ये चीजेँ खजाना हैँ तो किसी और के लिए इनकी अहमियत रद्दी से अधिक नहीँ । आवश्यकता है ऐसे दुर्लभ दस्तावेजोँ को ढूँढने और उन्हेँ सहेजने की । पर इसके लिए समय , श्रम और लोगोँ के रचनात्मक सहयोग की दरकार है । अन्यथा ये अनमोल धरोहर काल के गाल मेँ समाहित हो सकती है । इस हस्तलिखित पत्रिका ' मित्र ' का जो अंक मेरे पास उपलब्ध है वह सन 1932 का है । इस अंक मेँ प्रकाशित रचनाओँ और रचनाकारोँ के बारे मेँ मैँ आगे चर्चा करूँगा ।
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सोमवार, 11 जनवरी 2010

महँगाई मार गई

वो जमाना लद गया जब महँगाई अर्थशास्त्र के माँग और पूर्ति के नियम के अनुसार बढ़ती या घटती थी । अब तो महँगाई मंत्रियोँ के बयानोँ से बढ़ती है । केन्द्र सरकार के एक मंत्री का काम केवल बयान देकर महँगाई को बढ़ाना है । होना तो यह था कि ऐसे गैरजिम्मेदाराना बयान देने वाले मंत्री को लात मारकर बाहर निकाल देना था । पर जिन्हेँ गरीब जनता की चिन्ता के बजाय अपनी और अपनी सरकार की चिन्ता अधिक हो उनसे आप ऐसे नैतिक साहस की अपेक्षा भला कैसे कर सकते हैँ ? कोई बात नहीँ लेकिन याद रहे गरीबोँ की आह मेँ लोहे को भी भस्म करने की ताकत होती है । ये मंत्री ऐसी मौत मरेँगे जिसकी कभी किसी ने कल्पना भी नहीँ की होगी । उसके पूरे खानदान मेँ कोई दिया बाती लगाने वाला भी नहीँ बचेगा । ये हरामजादे जनता के खून पसीने की कमाई पर ऐश कर रहे हैँ । उन्हेँ भला गरीबोँ की क्या चिन्ता ? मिल मालिकोँ और उद्योगपतियोँ से अरबोँ रुपये चुनावी चन्दा लेकर अनैतिक तरीके से चुनाव जीतकर ये जनता के मालिक बन बैठे हैँ । और अब जनता को अंधाधुंध महँगाई की चक्की मेँ पीस -पीस कर मार रहे हैँ । मैँ और मेरे जैसे असंख्य गरीब लोग भगवान से दिन रात यही प्रार्थना कर रहे हैँ कि बयान दे दे कर महँगाई को बढ़वाने वाले मंत्री का काला मुँह हो जाए और उसको घोर कुम्भीपाक तथा रौरव नर्क की यातनाएँ झेलना पड़े । ऐसी नालायक और दुष्ट सरकार का महा सत्यानाश हो । जय जनता - जय जनार्दन ।

शनिवार, 9 जनवरी 2010

तिमिर हरणी

गत 1 जनवरी को मैँने तिमिर हरणी अर्थात टिमरनी नामक यह लेख श्रृंखला प्रारंभ की थी । उसमेँ मैँने ' टिमरनी ' के नाम के बारे मेँ प्रचलित प्राचीन मान्यताओँ की चर्चा की थी । आज के लेख मेँ ' टिमरनी ' नगर की प्राचीनता की पड़ताल करने का प्रयास करूँगा । कई वर्ष पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक महत्वपूर्ण बैठक टिमरनी मेँ सम्पन्न हुई थी जिसमेँ भाग लेने हेतु विश्वविख्यात पुरातत्ववेत्ता डॉ. हरिभाऊ वाकणकर यहाँ पधारे थे । बैठक के विभिन्न सत्रोँ के बीच समय निकालकर वे अपनी रुचि के अनुसार टिमरनी की प्राचीन धरोहरोँ और आसपास बिखरी दुर्लभ पुरा सम्पदा का अन्वेषण करते थे । अपने इसी अन्वेषण के आधार पर उन्होँने टिमरनी के अस्तित्व को छ: सौ वर्षोँ से भी अधिक पुराना प्रतिपादित किया था और इस बारे मेँ एक विस्तृत आलेख लिखकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक और टिमरनी निवासी मूर्धन्य विद्वान स्वर्गीय भाऊ साहब भुस्कुटे के पास भेजा था । इस आलेख की चर्चा स्व. भाऊ साहब जी ने स्वाभाविक ही कुछ लोगोँ से की थी । इन्हीँ मेँ से किसी सज्जन ने वह आलेख पढ़ने के लिए भाऊ साहब जी से माँग लिया और फिर कभी नहीँ लौटाया । इस प्रकार एक दुर्लभ दस्तावेज किसी लापरवाह व्यक्ति की ग़ैरजिम्मेदाराना हरक़त की भेँट चढ़ गया । स्व. भाऊ साहब भुस्कुटे को अपने देशव्यापी प्रवासोँ की व्यस्तता के चलते यह विस्मृति हो गई कि उन्होँने उक्त आलेख किसे दिया था ? स्वयं भाऊ साहब जी ने इस बारे मेँ एकाधिक बार मुझसे इस बात का उल्लेख किया था ।
टिमरनी का प्राचीन किला , जिसे यहाँ ' गढ़ी ' के नाम से जाना जाता है , भी पुरातात्विक काल गणना के अनुसार छ: सौ वर्षोँ से अधिक पुराना है । इसी गढ़ी के आग्नेय बुर्ज़ के नीचे बाहर की ओर एक छोटा परन्तु अति प्राचीन मन्दिर है जिसे पुराणिक बुआ के मन्दिर के नाम से जाना जाता है । कुछ लोग इसे मुलिया बाई के मन्दिर के नाम से भी जानते हैँ ।इस मन्दिर मेँ स्थित हनुमान जी की मूर्ति के नीचे एक इबारत खुदी हुई है जिससे भी इसके छ: सौ वर्षोँ से अधिक प्राचीन होने का पता चलता है । यहाँ पर यत्र - तत्र पड़ी प्राचीन मूर्तियाँ कुछ वर्ष पूर्व होशंगाबाद के जिला पुरातत्व संग्रहालय मेँ ले जाकर रख दी गई हैँ । होशंगाबाद के इसी संग्रहालय मेँ टिमरनी की दो नर्तकियोँ की प्राचीन प्रतिमाओँ के छायाचित्र लगे हुए हैँ जो बारहवीँ शताब्दी की हैँ । ये प्रस्तर प्रतिमाएँ आज भी टिमरनी की गढ़ी की दीवार के अन्दरूनी भाग मेँ लगी हुई हैँ । इसके अतिरिक्त इस गढ़ी की चहारदीवारी और बुर्ज़ोँ मेँ भी अनेक दुर्लभ मूर्तियाँ और पुरा सामग्री विद्यमान है । कुछ वर्षोँ पूर्व गढ़ी के बाहर पूर्वी भाग मेँ स्थित बस्ती मेँ दो मकानोँ के जीर्णोद्धार के समय की गई खुदाई मेँ दो नर कंकाल निकले थे लेकिन जागरुकता के अभाव और किसी लफड़े मेँ पड़ने के डर के चलते चुपचाप उन नरकंकालोँ को नर्मदा जी मेँ विसर्जित कर दिया गया अन्यथा उन प्राचीन नरकंकालोँ के अध्ययन से टिमरनी के प्राचीन इतिहास पर कुछ और प्रकाश पड़ सकता था । ऐसी भी किँवदन्तियाँ यहाँ सुनने को मिलती हैँ कि पुराने समय मेँ टिमरनी बस्ती वर्तमान रेल्वे लाइन के उत्तर मेँ तिड़क्यान बाबा के मन्दिर के आसपास बसी हुई थी । पिण्डारियोँ की लूटपाट के समय बस्ती के लोग भागकर गढ़ी के अन्दर शरण लिया करते थे । जब इस प्रकार की वारदातेँ बढ़ने लगीँ तो बस्ती के लोगोँ ने गढ़ी के आसपास बसना शुरू कर दिया । और धीरे - धीरे सभी लोग सुरक्षा की दृष्टि से गढ़ी के आसपास आकर बस गए । इस दृष्टि से टिमरनी बस्ती हरदा से भी प्राचीन सिद्ध होती है ।
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तिमिर हरणी

गत 1 जनवरी को मैँने तिमिर हरणी अर्थात टिमरनी नामक यह लेख श्रृंखला प्रारंभ की थी । उसमेँ मैँने ' टिमरनी ' के नाम के बारे मेँ प्रचलित प्राचीन मान्यताओँ की चर्चा की थी । आज के लेख मेँ ' टिमरनी ' नगर की प्राचीनता की पड़ताल करने का प्रयास करूँगा । कई वर्ष पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक महत्वपूर्ण बैठक टिमरनी मेँ सम्पन्न हुई थी जिसमेँ भाग लेने हेतु विश्वविख्यात पुरातत्ववेत्ता डॉ. हरिभाऊ वाकणकर यहाँ पधारे थे । बैठक के विभिन्न सत्रोँ के बीच समय निकालकर वे अपनी रुचि के अनुसार टिमरनी की प्राचीन धरोहरोँ और आसपास बिखरी दुर्लभ पुरा सम्पदा का अन्वेषण करते थे । अपने इसी अन्वेषण के आधार पर उन्होँने टिमरनी के अस्तित्व को छ: सौ वर्षोँ से भी अधिक पुराना प्रतिपादित किया था और इस बारे मेँ एक विस्तृत आलेख लिखकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक और टिमरनी निवासी मूर्धन्य विद्वान स्वर्गीय भाऊ साहब भुस्कुटे के पास भेजा था । इस आलेख की चर्चा स्व. भाऊ साहब जी ने स्वाभाविक ही कुछ लोगोँ से की थी । इन्हीँ मेँ से किसी सज्जन ने वह आलेख पढ़ने के लिए भाऊ साहब जी से माँग लिया और फिर कभी नहीँ लौटाया । इस प्रकार एक दुर्लभ दस्तावेज किसी लापरवाह व्यक्ति की ग़ैरजिम्मेदाराना हरक़त की भेँट चढ़ गया । स्व. भाऊ साहब भुस्कुटे को अपने देशव्यापी प्रवासोँ की व्यस्तता के चलते यह विस्मृति हो गई कि उन्होँने उक्त आलेख किसे दिया था ? स्वयं भाऊ साहब जी ने इस बारे मेँ एकाधिक बार मुझसे इस बात का उल्लेख किया था ।
टिमरनी का प्राचीन किला , जिसे यहाँ ' गढ़ी ' के नाम से जाना जाता है , भी पुरातात्विक काल गणना के अनुसार छ: सौ वर्षोँ से अधिक पुराना है । इसी गढ़ी के आग्नेय बुर्ज़ के नीचे बाहर की ओर एक छोटा परन्तु अति प्राचीन मन्दिर है जिसे पुराणिक बुआ के मन्दिर के नाम से जाना जाता है । कुछ लोग इसे मुलिया बाई के मन्दिर के नाम से भी जानते हैँ ।इस मन्दिर मेँ स्थित हनुमान जी की मूर्ति के नीचे एक इबारत खुदी हुई है जिससे भी इसके छ: सौ वर्षोँ से अधिक प्राचीन होने का पता चलता है । यहाँ पर यत्र - तत्र पड़ी प्राचीन मूर्तियाँ कुछ वर्ष पूर्व होशंगाबाद के जिला पुरातत्व संग्रहालय मेँ ले जाकर रख दी गई हैँ । होशंगाबाद के इसी संग्रहालय मेँ टिमरनी की दो नर्तकियोँ की प्राचीन प्रतिमाओँ के छायाचित्र लगे हुए हैँ जो बारहवीँ शताब्दी की हैँ । ये प्रस्तर प्रतिमाएँ आज भी टिमरनी की गढ़ी की दीवार के अन्दरूनी भाग मेँ लगी हुई हैँ । इसके अतिरिक्त इस गढ़ी की चहारदीवारी और बुर्ज़ोँ मेँ भी अनेक दुर्लभ मूर्तियाँ और पुरा सामग्री विद्यमान है । कुछ वर्षोँ पूर्व गढ़ी के बाहर पूर्वी भाग मेँ स्थित बस्ती मेँ दो मकानोँ के जीर्णोद्धार के समय की गई खुदाई मेँ दो नर कंकाल निकले थे लेकिन जागरुकता के अभाव और किसी लफड़े मेँ पड़ने के डर के चलते चुपचाप उन नरकंकालोँ को नर्मदा जी मेँ विसर्जित कर दिया गया अन्यथा उन प्राचीन नरकंकालोँ के अध्ययन से टिमरनी के प्राचीन इतिहास पर कुछ और प्रकाश पड़ सकता था । ऐसी भी किँवदन्तियाँ यहाँ सुनने को मिलती हैँ कि पुराने समय मेँ टिमरनी बस्ती वर्तमान रेल्वे लाइन के उत्तर मेँ तिड़क्यान बाबा के मन्दिर के आसपास बसी हुई थी । पिण्डारियोँ की लूटपाट के समय बस्ती के लोग भागकर गढ़ी के अन्दर शरण लिया करते थे । जब इस प्रकार की वारदातेँ बढ़ने लगीँ तो बस्ती के लोगोँ ने गढ़ी के आसपास बसना शुरू कर दिया । और धीरे - धीरे सभी लोग सुरक्षा की दृष्टि से गढ़ी के आसपास आकर बस गए । इस दृष्टि से टिमरनी बस्ती हरदा से भी प्राचीन सिद्ध होती है ।
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शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

टिमरनी अर्थात तिमिर हरणी

' टिमरनी ' , मध्य प्रदेश का ग्रामीण परम्पराओँ और शहरी मानसिकता वाला एक छोटा सा नगर । आबादी लगभग बीस हजार । देश के हजारोँ ऐसे ही नगरोँ से कई मामलोँ मेँ अलग और अनूठा है टिमरनी नगर । इस ब्लॉग मेँ टिमरनी के भूत , वर्तमान और सम्भव हुआ तो भविष्य की भी चर्चा होगी । इसके ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व , इसकी परम्परा , संस्कृति , विरासत और राजनीति को भी समझने की कोशिश की जाएगी । इसके चाल , चरित्र और चेहरे को पढ़ने का प्रयास भी होगा । यहाँ की किँवदन्तियोँ , हस्तियोँ और प्रमुख घटनाओँ का उल्लेख भी यहाँ क्रमश: करने का प्रयत्न होगा । इसके अलावा टिमरनी के बारे मेँ जो कुछ भी लिखने योग्य होगा वो सब आपको यहाँ पढ़ने को मिल सकता है । इस बारे मेँ आपके बहुमूल्य सुझावोँ का हमेशा स्वागत होगा । बस आप इसे पढ़ते रहिये । मुझे विश्वास है कि टिमरनी के बारे मेँ रुचि रखने वाले लोग जरूर इस उपक्रम को पसंद करेँगे ।
तो आइये ! आरम्भ करते हैँ इस नगर के नाम से । टिमरनी के बारे मेँ कहा जाता है कि यह देववाणी संस्कृत के शब्द ' तिमिर ' और ' हरणी ' को मिलाकर बने ' तिमिरहरणी ' शब्द का ही तद्भव रूप है जिसका अर्थ होता है अंधकार को हरने वाला । ' टिमरनी ' नाम के बारे मेँ प्रचलित मान्यताओँ मेँ यही सर्वाधिक उचित भी जान पड़ती है क्योँकि प्राचीनकाल मेँ अनेक उद्भट और मूर्धन्य विद्वान यहाँ निवास किया करते थे जो ज्ञान मेँ काशी के पण्डितोँ से भी शास्त्रार्थ करने की योग्यता रखते थे । यही कारण था कि टिमरनी को ' छोटी काशी ' की संज्ञा से भी विभूषित किया जाता था । टिमरनी के ये सभी विद्वान अपने धर्म , कर्म और वाणी से यहाँ के लोगोँ मेँ व्याप्त अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने का श्रेष्ठ कार्य किया करते थे । उनके इन्हीँ कार्योँ के फलस्वरूप इस स्थान को ' तिमिर हरणी ' कहा जाने लगा जो बाद मेँ ' टिमरनी ' हो गया । ऐसा कहते हैँ कि एक बार पड़ोस के निमाड़ क्षेत्र के किसी गाँव मेँ यज्ञ का आयोजन हुआ । पण्डितोँ की स्वाभाविक ईर्ष्या के चलते उस यज्ञ मेँ टिमरनी के किसी भी पण्डित को न तो आमंत्रित किया गया और न ही यज्ञ के सम्बन्ध मेँ उनसे कोई सलाह ली गई । लेकिन सहज श्रद्धा के कारण यहाँ के कुछ पण्डित उस यज्ञ मेँ दर्शनार्थ पहुँच गये । वहाँ पहुँचकर उन्हेँ यह अनुभव हुआ कि यज्ञ स्थल का चयन करने मेँ कुछ भूल हुई है । किसी अनिष्ट या अनहोनी को टालने के लिए उन्होँने आयोजकोँ से पूछा कि क्या यज्ञ के पूर्व यज्ञस्थल का भूमिशोधन किया गया था ? उन्हेँ उत्तर मिला कि इसकी क्या आवश्यकता है ? तब टिमरनी के पण्डितोँ ने कहा कि यदि यज्ञभूमि अशुद्ध हुई तो यज्ञ का अभीष्ट सिद्ध नहीँ हो पाएगा । जब कुछ लोगोँ को इन पण्डितोँ की बात ठीक लगी तो यज्ञस्थल की खुदाई की गई । उस समय वहाँ उपस्थित लोगोँ के आश्चर्य का ठिकाना नहीँ रहा जब वहाँ खुदाई मेँ ऊँट की हड्डियोँ का एक ढाँचा निकला । तब सभी लोग इन पण्डितोँ की विद्वता का लोहा मान गये ।
एक दूसरी घटना इस प्रकार बताई जाती है कि यहाँ के एक विद्वान पण्डित से किसी ने पूछा कि आज कौन सी तिथि है ? उस दिन अमावस्या थी लेकिन भूलवश उनके मुँह से निकल गया कि आज पूर्णिमा है । इस पर पूछने वाले ने उनकी विद्वता की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि आप कैसे पण्डित हो ? आज तो अमावस्या है और आप पूर्णिमा बता रहे हो । पण्डितजी को अपनी भूल का अहसास तो हो गया लेकिन तीर तरकश से निकल चुका था । उस व्यक्ति ने इस बात को लेकर नगर मेँ पण्डितजी की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए दुष्प्रचार कर दिया । पण्डितजी इससे बहुत आहत हुए । अन्तत: उन्होँने यह घोषणा कर दी कि जब उनके मुँह से निकला है कि आज पूर्णिमा है तो फिर आज सभी को पूर्णिमा के चाँद के दर्शन अवश्य ही होँगे । इसके बाद सायंकाल पण्डितजी ने एक काँसे की चमचमाती हुई बड़ी सी थाली मेँ चन्दन से कोई सिद्ध मंत्र लिखा और उस थाली को आकाश मेँ पूर्व दिशा की ओर जोर से उछाल दिया । थाली घनघनाती हुई आकाश की ओर चली गई । उस शाम टिमरनी के लोगोँ ने आकाश मेँ अद्भुत दृश्य देखा । अमावस्या होने के बाद भी आकाश पूर्णिमा के चाँद से आलोकित हो रहा था , टिमरनी का हर आँगन और गली - कूचा स्वच्छ , निर्मल और दूधिया चाँदनी मेँ नहा रहा था । एक पण्डित ने अपने मुँह से भूलवश निकले वचनोँ को सत्य सिद्ध करते हुए अमावस्या के तिमिर का हरण कर लिया था इसीलिए इस नगर को ' तिमिर - हरणी ' कहा गया ।
टिमरनी के नाम को लेकर एक अन्य धारणा यह भी है टिमरनी के निकट के जंगलोँ मेँ उच्चकोटि की सागौन की इमारती लकड़ी बहुतायत से पाई जाती है । ' टिम्बर ' अर्थात लकड़ी और ' नियर ' अर्थात पास मेँ । इस प्रकार अँग्रेजोँ के द्वारा ' टिम्बर - नियर ' कहने के कारण कालान्तर मेँ इस नगर को टिम्बरनियर के उच्चारण की सुविधा के कारण स्थानीय लोग टिमरनी कहने लगे । लेकिन यह धारणा अँग्रेजी काल से जुड़ी होने के कारण कुछ अर्वाचीन लगती है जबकि इस नगर का अस्तित्व अँग्रेजी काल से बहुत पुराना है । इस कारण टिमरनी के नाम को लेकर तिमिर हरणी वाली धारणा अधिक उपयुक्त और तर्कसंगत मालूम होती है । टिमरनी की मिट्टी , हवा और पानी मेँ ही कुछ ऐसी विशेषता है कि यहाँ के लोगोँ का ' आई क्यू ' इसी स्तर के अन्य नगरोँ के लोगोँ की तुलना मेँ अधिक होता है । शायद यह टिमरनी के उन्हीँ प्राचीन पण्डितोँ की तपस्या का ही सुफल है जिनके तपोबल से यहाँ का वायुमण्डल अब तक प्रभावी जान पड़ता है ।

..... क्रमश: