रविवार, 31 जनवरी 2010

तिमिर हरणी

' तिमिर हरणी ' श्रृंखला का तीसरा भाग आज आपके समक्ष प्रस्तुत है । पहले और दूसरे भाग मेँ ' टिमरनी ' के नाम और उसकी प्राचीनता की चर्चा की गई थी । इस श्रृंखला मेँ रुचि रखने वाले होशंगाबाद निवासी युवा कवि और ' सरल - चेतना ' पत्रिका के सम्पादक भाई हेमन्त रिछारिया ने मुझे कुछ महत्वपूर्ण और उपयोगी सुझाव दिए हैँ । उनके सुझावोँ पर अमल करते हुए इस श्रृंखला को लिखने का प्रयत्न करूँगा । मैँ भाई हेमन्त रिछारिया को उनके सुझावोँ के लिए हृदय से धन्यवाद देता हूँ ।
टिमरनी मेँ जो गढ़ी है उसके मुख्य प्रवेश द्वार के अन्दर आगे एक छोटा सा प्राचीन गणेश जी का मन्दिर है । इस मन्दिर के गर्भ गृह मेँ लगभग रेँगकर ही प्रवेश किया जा सकता है । गर्भ गृह अत्यंत संकीर्ण होने से इसके अन्दर एक बार मेँ केवल एक व्यक्ति ही भली भाँति पूजा अर्चना कर सकता है । यह मन्दिर लगभग छुपा हुआ है । बाहर से देखने पर यह एक छोटा सा मकान जैसा दिखाई देता है । अनभिज्ञ व्यक्ति बाहर से देखकर इसे घर ही कहेगा । गणपति की साधना - आराधना करने वालोँ के लिए यह एक आदर्श स्थान है । कहा जाता है कि टिमरनी मेँ गणेश जी का यह सबसे प्राचीन और अत्यंत सिद्ध मन्दिर है तथा यहाँ साधना करने से साधक को कई गुना फल प्राप्त होता है । कभी इस मन्दिर के ओसारे मेँ ब्राह्मण बटुक भगवान गणेश की साक्षी मेँ वेदाध्ययन किया करते थे और अनेक विद्वान पण्डित उन्हेँ धर्म , ज्योतिष और शास्त्रोँ की उच्च कोटि की शिक्षा दिया करते थे जिसके कारण टिमरनी विद्वानोँ की नगरी के रूप मेँ जानी जाती थी । वेदाध्ययन की यह परम्परा काल और परिस्थितियोँ के चलते आगे नहीँ चल सकी लेकिन यह स्वाभाविक ही है कि जिस प्रांगण मेँ कभी वेदोँ के स्वर गूँजे होँ वह तो सिद्ध स्थान होगा ही । कालान्तर मेँ इस स्थान पर राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रेमियोँ ने अपनी साहित्यिक गतिविधियाँ प्रारंभ कर दीँ । इन साहित्यिक हलचलोँ के आज़ादी के बाद तक चलने की जानकारी मिलती है । आज़ादी के पूर्व साहित्य की चर्चाओँ और कार्यक्रमोँ का एक केन्द्र बालाजी का मन्दिर भी हुआ करता था । जहाँ आजकल विनोद कुमार गुलाबचन्द जैन की हार्डवेयर की दूकान है वहाँ कभी एक अत्यन्त समृद्ध पुस्तकालय और वाचनालय हुआ करता था । यह जगह भी टिमरनी के कुछ विशेष आयोजनोँ और बैठकोँ के लिए निश्चित थी । एक पुस्तकालय और वाचनालय गढ़ी के प्रवेश द्वार के दायीँ ओर स्थित भवन मेँ भी चला करता था । इन सभी स्थानोँ पर साहित्यिक , सांस्कृतिक और स्वतंत्रता के आन्दोलनोँ से सम्बधित राजनैतिक गतिविधियाँ साथ - साथ चला करती थीँ । साहित्यिक कार्यक्रमोँ मेँ तब कवि गोष्ठियाँ ही प्रमुख रूप से होती थीँ । इन कवि गोष्ठियोँ मेँ तब ' समस्यापूर्ति ' का खूब चलन था । एक पंक्ति या फिर एक शब्द दे दिया जाता था जिसका उपयोग प्रत्येक कवि को अपनी कविता मेँ करना होता था । समस्यापूर्ति के लिए कवि गण अपनी सम्पूर्ण क्षमता और योग्यता का परिचय देते हुए श्रेष्ठ कविताएँ रचते थे जिनमेँ अधिकतर कवित्त या सवैया छन्द होते थे । समस्यापूर्ति के लिए दी गई ' पेड़ हिलै पै हिलै नहीँ पत्ता ' और ' जल छोड़ के मछली वृक्ष चढ़ी ' जैसी पंक्तियाँ अनेक पुराने बुजुर्गोँ को आज भी अच्छी तरह से स्मरण हैँ । कौन कवि किस चतुराई से समस्या की पूर्ति करके लाता है इसकी जिज्ञासा सभी को हुआ करती थी और इसीलिए इन गोष्ठियोँ मेँ कवियोँ के अलावा श्रोताओँ की भी अच्छी खासी उपस्थिति रहती थी । साहित्य और मातृभाषा के प्रति समर्पित कुछ उत्साही युवक तब एक हस्तलिखित पत्रिका ' मित्र ' का प्रतिमाह प्रकाशन करते थे । प्रत्येक अंक का सम्पादक अलग होता था । इसमेँ लेख , कविताएँ , कहानियाँ , व्यंग्य लेख , चित्रकला , व्यंग्य चित्र और सम्पादकीय आदि वो सब कुछ होता था जो एक श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका के लिए लाजिमी होता है । इस हस्तलिखित पत्रिका का एक दुर्लभ अंक मेरे पास जीर्ण -शीर्ण अवस्था मेँ मौजूद है जिसे मैँने धरोहर की तरह सँभालकर रखा है । इस पत्रिका के अन्य अंक टिमरनी मेँ कुछ परिवारोँ मेँ पुराने कागज पत्रोँ के बीच पड़े हो सकते हैँ । मेरे जैसे व्यक्ति के लिए यदि ये चीजेँ खजाना हैँ तो किसी और के लिए इनकी अहमियत रद्दी से अधिक नहीँ । आवश्यकता है ऐसे दुर्लभ दस्तावेजोँ को ढूँढने और उन्हेँ सहेजने की । पर इसके लिए समय , श्रम और लोगोँ के रचनात्मक सहयोग की दरकार है । अन्यथा ये अनमोल धरोहर काल के गाल मेँ समाहित हो सकती है । इस हस्तलिखित पत्रिका ' मित्र ' का जो अंक मेरे पास उपलब्ध है वह सन 1932 का है । इस अंक मेँ प्रकाशित रचनाओँ और रचनाकारोँ के बारे मेँ मैँ आगे चर्चा करूँगा ।
....क्रमश:

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