रविवार, 30 अगस्त 2009

भा.ज.पा. की अन्तर्कलह

भारतीय जनता पार्टी के लिए इससे अधिक लज्जा की बात और क्या हो सकती है कि उसकी अन्तर्कलह पर काँग्रेस नेता और प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिँह चिन्ता व्यक्त करेँ । वैसे तो काँग्रेस के मन मेँ इन घटनाओँ से लड्डू फूट रहे होँगे लेकिन ऐसी चिन्ता प्रकट करके काँग्रेस ने यह जताने का प्रयास किया है कि वह लोकतंत्र मेँ मजबूत विपक्ष की पक्षधर है । जबकि ऐसे प्रकरणोँ से काँग्रेस का इतिहास भरा पड़ा है । वैसे तो भाजपा के वैचारिक अवधान मेँ स्खलन भारतीय जनसंघ के समय मेँ ही प्रारंभ हो गया था । पं.दीनदयाल उपाध्याय की दु:खदायी हत्या के बाद कुछ समय तक सब कुछ ठीक चला लेकिन किसी समय जनसंघ के अध्यक्ष पद को सुशोभित कर चुके बलराज मधोक को जब पार्टी से निष्कासित कर दिया गया तो यह अहसास होने लगा कि जनसंघ के दिये के तेल मेँ कुछ गड़बड़ है । संयोग से जिस दिन बलराज मधोक को बाहर किया गया था वे ग्वालियर मेँ थे और मैँ उन दिनोँ वहाँ पत्रकारिता का ककहरा सीख रहा था । कमलाराजा कन्या महाविद्यालय कम्पू मेँ एक संगोष्ठी मेँ शिरकत करने वे ग्वालियर आए थे । इसी संगोष्ठी मेँ तत्कालीन युवातुर्क चन्द्रशेखर काँग्रेस की ओर से तथा प्रो.एन.जी.गोरे समाजवादियोँ के प्रतिनिधि के रूप मेँ शामिल हुए थे । यहीँ मञ्च पर चन्द्रशेखर ने मधोकजी को उनके निष्कासन की सूचना दी। कार्यक्रम के बाद प्रो.बलराज मधोक से मेरी एक संक्षिप्त भेँट हुई । मैँने उनके निष्कासन पर उनकी प्रतिक्रिया जानना चाही तो उन्होँने केवल इतना ही कहा था कि यह दु:खद है । उनके शब्द भले ही थोड़े से थे पर उनका चेहरा तब के जनसंघ और अब भाजपा के भविष्य को लेकर बहुत कुछ बयान कर रहा था । शायद यह जनसंघ के वैचारिक अवधान के लिए पहला झटका था । यह 1973-74 का वह समय था जब जनसंघ विचारोँ और सिद्धांतोँ के प्रति समर्पित कार्यकर्ताओँ पर आधारित पार्टी के रूप मेँ देश मेँ अपना स्थान बना चुका था । ऐसे समय मेँ अपेक्षाकृत युवा लालकृष्ण आडवाणी के हाथोँ मेँ जनसंघ की बागडोर सौँपी गई । कार्यकर्ताओँ मेँ कुछ उत्साह का संचार हुआ । कुछ समय बाद देश पर आपातकाल थोपा गया । प्राय: सभी विपक्षी नेता जेल भेज दिए गए । 19 महीनोँ तक इस देश ने अन्याय,अत्याचार और शोषण को भोगा । फिर आपातकाल हटा । नेतागण जेल से छोड़े गए । विपक्षी नेताओँ की खिचड़ी पकी और सबने मिलकर काँग्रेस को पटखनी देने के एकसूत्रीय कार्यक्रम के तहत अपनी-अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओँ को तिलांजलि देकर जनता पार्टी का गठन किया । आम चुनाव हुए तो जनता पार्टी को अभूतपूर्व सफलता मिली । लेकिन इस विजय को अलग-अलग विचारधाराओँ वाले नेता अधिक समय तक पचा नहीँ पाए और अन्तत: जनता पार्टी बिखर गई । यह तो होना ही था क्योँकि यह जीत उनकी थी ही नहीँ वास्तव मेँ यह आपातकाल के दौरान व्यापक पैमाने पर की गई जबरन नसबंदी का असर था जिसके भय से लोगोँ ने हर हाल मेँ काँग्रेस को हटाने का जनादेश दिया था । जनता पार्टी के पतन के बाद जनसंघ से जुड़े लोगोँ ने भारतीय जनता पार्टी का गठन किया और छुटपुट विरोध के बाद गाँधीवादी समाजवाद को अपने उद्देश्योँ मेँ शामिल किया । वैचारिक अवधान मेँ परिवर्तन का यह एक और शिलालेख बन गया । अपनी -अपनी पार्टियोँ मेँ उपेक्षित कई काँग्रेसी और समाजवादी अपना भविष्य सुरक्षित बनाने के लिए भाजपा मेँ शामिल हो गए । सत्ता का सुख भोग चुके ये लोग अपने साथ काजल की कोठरी से ढेर सारा काजल लेकर आए थे जिसने भाजपा के कई नेताओँ को भी रँग दिया । भाजपा के कई नेता भी सत्तासुन्दरी के प्रति आकर्षित दिखाई देने लगे । कुछ अपवादोँ को छोड़ देँ तो अधिकतर भाजपाई अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता भूल गए और उनका कथित रूप से काँग्रेसीकरण हो गया । येन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्ति ही उनका उद्देश्य हो गया । नीचे से ऊपर तक कमोबेश यही स्थिति निर्मित हो गई । जनहित पीछे छूट गया । स्वार्थ और भ्रष्टाचार की अपसंस्कृति विकसित हो गई । कहा जा सकता है कि भाजपा काँग्रेस का नया संस्करण बन गई । मुझे यह लगता है कि भाजपा को जनसंघ के समय के वैचारिक अवधान की ओर लौटना होगा । अखण्ड भारत,समान नागरिक संहिता,रामजन्मभूमि और धारा 370 के मुद्दे उसे पुरजोर ढंग से अपने एजेण्डे मेँ रखना चाहिए तभी उसे अपना खोया हुआ स्थान पुन: प्राप्त हो सकता है । सेकुलर छबि बनाने के फेर मेँ उसकी स्थिति न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम की हो गई है । भाजपा का वर्तमान संकट एक अवसर लेकर आया है जिसका उपयोग उसे अपने आप को बदलने के लिए कर लेना चाहिए । आत्ममंथन का यह अच्छा समय उपलब्ध हुआ है । इसे भुनाने मेँ अब देर नहीँ करना चाहिए वरना एक दिन भाजपा इतिहास की वस्तु हो जाएगी । आशा की जानी चाहिए कि भाजपा इस संकट से उबरकर पुन: अपने समृद्ध स्वरूप मेँ देश की सेवा करके उसे परमवैभव पर पहुँचाने के संकल्प पर चलेगी । अस्तु ।

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