शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

मोहम्मद अली जिन्ना

इसमेँ कोई सन्देह नहीँ कि मोहम्मद अली जिन्ना भारत विभाजन के अपराधी हैँ और इस अपराध के कारण उन्हेँ हम कभी भी क्षमा नहीँ कर सकते । लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीँ है कि हम उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे मेँ कुछ कहना,सुनना,पढ़ना,लिखना या चर्चा करना भी पसन्द न करेँ । इस देश मेँ हमेशा ही विरोधी विचारोँ का सम्मान किया जाता रहा है । कबीर तो सदियोँ पूर्व इसके महत्व को प्रतिपादित कर चुके हैँ । भारतीय जनता पार्टी मेँ जसवन्तसिँह की पुस्तक के कारण इन दिनोँ जो भूचाल आया हुआ है उसने पार्टी मेँ आन्तरिक लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है । यद्यपि मैँने इस पुस्तक को नहीँ पढ़ा है लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार उनसे नहीँ छीना जा सकता । पार्टी से बेआबरू कर निकाले जाने से पहले उनकी पुस्तक पर पार्टी मेँ खुलकर चर्चा होनी चाहिए थी । जसवन्तसिँह ने शायद यह तो कहीँ नहीँ कहा होगा कि ये पार्टी के विचार हैँ । क्या पार्टी मेँ रहकर कोई अपने विचार लिपिबद्ध नहीँ कर सकता ? वैचारिक मतभेद तो लोकतंत्र की शोभा होते हैँ । जसवन्तसिँह जैसे जिम्मेदार और कद्दावर नेता को बाहर का रास्ता दिखाने से पहले दस बार सोचा जाना चाहिए था । अनेक महत्वपूर्ण दायित्वोँ को निभा चुके जसवन्तसिँह ने वामपंथियोँ के गढ़ मेँ जाकर पार्टी का परचम लहराया था । पार्टी उनके योगदान को भुलाकर उनके साथ ऐसा सुलूक करेगी यह थोड़ा अजीब लगता है । आज तक दुनिया मेँ ऐसा कोई इंसान पैदा नहीँ हुआ जिसकी उसके समकालीन लोगोँ ने निन्दा या आलोचना न की हो । राम , कृष्ण , ईसा या गाँधी कोई भी आलोचना से नहीँ बच सका । आलोचना से केवल वही बच सकता है जो बिलकुल निकम्मा और निरुपयोगी हो । फल वाले पेड़ोँ पर ही पत्थर फेँके जाते हैँ , कँटीली झाड़ियोँ पर नहीँ । आलोचना तो किसी व्यक्ति के सफल और सक्रिय जीवन का प्रमाण पत्र होती है । हाल के कुछ वर्षोँ मेँ आलोचना से डरने और स्वस्थ बहस से बचने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । गाँधीजी के नकली चेले और नकली अनुयायी इस प्रवृत्ति मेँ सबसे आगे दिखाई देते हैँ ।गाँधीजी की आत्मा (यदि उनका मोक्ष नहीँ हुआ होगा तो) उनकी इन करतूतोँ से निश्चित ही दु:खी होती होगी क्योँकि गाँधीजी अपने विरोधियोँ और आलोचकोँ के विचारोँ का सम्मान करते थे । लेकिन अब तो भारतीय जनता पार्टी का रवैया भी ऐसा ही लगने लगा है । और हो भी क्योँ न , आख़िर वह भी तो अब काँग्रेस की कार्बन कॉपी बन चुकी है । उसका पुराना वैचारिक अवधान खो चुका है । दूसरोँ के विचारोँ को न सुनना असभ्यता की निशानी माना जाता है । सभ्य उसे कहा जाता है जो सभा मेँ बैठने की योग्यता रखता हो । हमारी संवैधानिक विवशताओँ के कारण देश की उच्च सभाओँ मेँ बड़ी संख्या मेँ ऐसे लोग पहुँचते रहे हैँ जो वहाँ बैठने की पात्रता नहीँ रखते ।मोहम्मद अली जिन्ना के बारे मेँ मैँ इतना जानता हूँ कि वे एक पक्के राष्ट्रवादी थे । पश्चिमी विचारोँ तथा पश्चिमी भाषा और भूषा से वे बहुत प्रभावित थे । एक बैरिस्टर और विचारक के रूप मेँ उनका देश मेँ बड़ा सम्मान था । वे न तो नमाज़ पढ़ते थे और न ही रोज़े रखते थे । कहा जा सकता है कि वे पंथनिरपेक्षता के पक्षधर थे । लेकिन जब उन्होँने यह अनुभव किया कि गाँधीजी उनके जैसे प्रगतिशील सोच के मुसलमान के विचारोँ की अपेक्षा कट्टर मुसलमानोँ के विचारोँ को अधिक महत्व देते हैँ तो उनकी सोच मेँ परिवर्तन आ गया और वे शायर मोहम्मद इक़बाल के द्विराष्ट्रवाद के विचार को आगे बढ़ाने मेँ लग गए । इसका असर यह हुआ कि अब अँग्रेज और गाँधीजी दोनोँ ही उन्हेँ महत्व देने लगे । यही वह कारण था कि एक अच्छा खासा राष्ट्रवादी ,प्रगतिशील और पढ़ा लिखा व्यक्ति कट्टरवादी मुसलमान बन गया । हालाँकि पाकिस्तान बनने के बाद भी उनके पंथनिरपेक्ष विचार कायम थे और इसीलिए उन्होँने पाकिस्तान को एक इस्लामिक देश घोषित करने की बजाए धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया था । लेकिन उनकी मृत्यु के बाद पाकिस्तान का वह स्वरूप कायम नहीँ रह सका । अब मेरे पाठक स्वयं जिन्ना के बारे मेँ अपनी राय तय करेँ और यदि मेरे द्वारा कोई तथ्य अधूरा गलत प्रस्तुत हो गया हो तो मुझे अपनी टिप्पणी से अवगत कराने की कृपा करेँ । अस्तु ।

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