जिन घरोँ मेँ घूमते हैँ नाग काले ।
लोग अब कहने लगे उनको शिवाले ।
कोई कहता ज़िन्दगी मिल जाए मुझको ,
कोई कहता या ख़ुदा मुझको उठा ले ।
भूख की पीड़ा जरा उनसे तो पूछो ,
छिन गए हैँ हाथ से जिनके निवाले ।
इन अँधेरोँ से भला अब ख़ौफ़ कैसा ?
आपने खुद ही मिटाए हैँ उजाले ।
जिक्र मेरा भी हुआ है जब कभी भी ,
शोषितोँ के आपने चर्चे निकाले ।
क्या कभी पिघले हैँ पत्थरदिल सियासी ,
तू भले ही उम्र भर आँसू बहा ले ।
दर बदर भटके फिरे हैँ साथ लेकर ,
ये दिलोँ के दाग़ और पैरोँ के छाले ।
गुरुवार, 13 अगस्त 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें