रविवार, 18 अक्तूबर 2009

होता है

रस्ते मेँ पत्थर होता है ।
पाँव खून से तर होता है ।
आला अफ़सर घर होते हैँ ,
घर मेँ ही दफ़्तर होता है ।
चोर भले ही कोई भी हो ,
शक़ तो नौकर पर होता है ।
जिसे समझते घटिया वो ही,
अच्छोँ से बेहतर होता है ।
दान , धर्म मेँ सबसे आगे ,
डाकू या तस्कर होता है ।
रबड़ी और दूध से ज़्यादा ,
कुर्सी मेँ पावर होता है ।
घर मेँ नहीँ सुरक्षित हैँ हम ,
बाहर भी तो डर होता है ।

2 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया व सही लिखा है।

ACHARYA RAMESH SACHDEVA ने कहा…

शक तो नौकर पर होता है।
क्या कहनेर्षोर्षो
बात को काव्य रूप देकर आपने जमाने की सच्चाई को प्रस्तुत किया है।
सरस्वती आपकी लेखनी पर यूँ ही सजी रहे।
रमेश सचदेवा