सोमवार, 31 अगस्त 2009

आशियाने की

मिली हैँ चंद घड़ियाँ ज़िन्दगी मेँ मुस्कराने की ।
चलो फिर बात कर लेँ आज कुछ हँसने हँसाने की ।
अभी खाली नहीँ दुनिया हुई है क़द्रदानोँ से ,
कहीँ से आएगी आवाज़ हमको भी बुलाने की ।
अग़र गाऊँ तो ख़ुश हूँ मैँ, सभी ऐसा समझते हैँ ,
मुझे आदत है मुश्क़िल दौर मेँ भी गुनगुनाने की ।
फ़क़त मैँने तो अपनी दास्ताने ग़म सुनाई थी ,
मेरी मंशा नहीँ थी दरअसल तुमको रुलाने की ।
न बारिश है , न सर्दी है , न मौसम है बहारोँ का ,
तलब क्योँ उठ रही है आज फिर घर लौट जाने की ।
ग़ुज़ारे थे जहाँ पर ज़िन्दगी के कुछ अहम लमहे ,
अभी तक याद आती है हमेँ उस आशियाने की ।

3 टिप्‍पणियां:

karuna ने कहा…

यह सच है जहाँ बचपन गुजारते है वह आशियाना ताउम्र नहीं भूलता ,सुन्दर अभिव्यक्ति

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बेहतरीन रचना..

Unknown ने कहा…

बहुत ख़ूब ग़ज़ल......
हर शे'र कीमती
हर शे'र अनमोल !

अभी खाली नहीँ दुनिया हुई है क़द्रदानोँ से ,
कहीँ से आएगी आवाज़ हमको भी बुलाने की ।
अग़र गाऊँ तो ख़ुश हूँ मैँ, सभी ऐसा समझते हैँ ,
मुझे आदत है मुश्क़िल दौर मेँ भी गुनगुनाने की ।

वाह !
क्या बात है...............बधाई !