हर तरफ़ बजने लगी हैँ तालियाँ ।
गीत जब से हो गए क़व्वालियाँ ।
किस तरह तोड़ेँ फलोँ को पेड़ से ,
और ऊँची हो गई हैँ डालियाँ ।
अच्छे-अच्छे शब्द अपने पास हैँ ,
क्योँ भला फिर देँ किसी को गालियाँ ।
अब कहाँ रौनक बची रुख़सार पर ,
हो गईँ ग़ायब लबोँ से लालियाँ ।
नाम सीता और गीता अब कहाँ ,
अब यहाँ हैँ रूबियाँ , शेफ़ालियाँ ।
बाँट दी खुशियाँ सभी जो पास थीँ ,
माँग लीँ अपने लिए बेहालियाँ ।
अब कोई चेहरा नज़र आता नहीँ ,
खिड़कियोँ पर जड़ गई हैँ जालियाँ ।
सो गए हुक़्क़ाम चादर तानकर ,
फिर करेगा कौन देखा भालियाँ ।
सोमवार, 31 अगस्त 2009
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5 टिप्पणियां:
लाजवाब है कव्वालियां बधाई
बाँट दी खुशियाँ सभी जो पास थीँ ,
माँग लीँ अपने लिए बेहालियाँ ।
सो गए हुक़्क़ाम चादर तानकर ,
फिर करेगा कौन देखा भालियाँ । bhut hi achchhi lagi aap ki ye pankitya ....zindagi ke bhut karib or sach baya karti
achchhi gazal ke liye badhai swikar karain
Waah !!! Bahut hi sundar rachna....
हर पंक्ति अद्भुत है...शानदार है..काबिलेतारीफ है..और क्या कहूं...बस बड़ी रोचक...है...
अब कोई चेहरा नज़र आता नहीँ ,
खिड़कियोँ पर जड़ गई हैँ जालियाँ ।
-बहुत खूब कहा..वाह!
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