नक़ाब मेँ था मग़र माहताब जैसा था ।
मुझे है याद वो चेहरा गुलाब जैसा था ।
आँख मिलते ही कई लोग होश खो बैठे ,
नशा निग़ाह मेँ बिलकुल शराब जैसा था ।
मुस्कराना यदि ख़ुशबू बिखेर देता था ,
तो उसका रूठना फिर इन्क़लाब जैसा था ।
वो किसी बात पर गुस्से से तमतमाए तो ,
मिजाज चाँद का भी आफ़ताब जैसा था ।
सवाल इस क़दर दागे थे उनकी चुप्पी ने ,
हमारा हाल किसी लाजवाब जैसा था ।
इत्र जब लाश को लोगोँ ने लगाया तो लगा ,
ये बदनसीब अवध के नवाब जैसा था ।
मेरे क़रीब जो आया उसी ने पहचाना ,
मेरा वज़ूद खुली हुई क़िताब जैसा था ।
शुक्रवार, 4 सितंबर 2009
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1 टिप्पणी:
मुस्कराना यदि ख़ुशबू बिखेर देता था ,
तो उसका रूठना फिर इन्क़लाब जैसा था
बेहतरीन ग़ज़ल...लाजवाब...बधाई..
नीरज
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