गुरुवार, 10 सितंबर 2009

कहाँ है ?

हो गई गुम रोशनी आख़िर कहाँ है ?
तीरग़ी की ओर बढ़ता कारवाँ है ।
देखिए ग़ुलशन उजाड़ा जा रहा है ,
चैन से सोया हुआ क्योँ बागवाँ है ?
ताज़ की तामीर कैसे हो सकेगी ?
अब नहीँ मुमताज़ औ न शा'जहाँ है ।
दर्द , आँसू , आह , ग़म , ग़ुरबत कभी ,
मुफ़लिसी की एक लम्बी दास्ताँ है ।
किस तरह हमको निकालोगे वहाँ से ,
आपके दिल मेँ हमारा भी मकाँ है ।
आप - हम जैसे कई आए गए हैँ ,
याद रखना ये किराये का मकाँ है ।
उम्र बेशक़ हो गई होगी ज़ियादा ,
दर असल दिल आज भी लगता जवाँ है ।

4 टिप्‍पणियां:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

उम्र बेशक़ हो गई होगी ज़ियादा ,
दर असल दिल आज भी लगता जवाँ है ।

बहुत सुन्दर, आपने तो हथोडे से वार कर दिया !

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत सुन्दर
मुफ़लिसी की एक लम्बी दास्ताँ है ।
किस तरह हमको निकालोगे वहाँ से ,
आपके दिल मेँ हमारा भी मकाँ है ।
लाजवाब रचना के लिये शुभकामनायें

सुभाष चन्द्र ने कहा…

बहुत सुन्दर... भावों का सही चित्रण...

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा कलाम!!