सोमवार, 28 सितंबर 2009

साँकल रहे हैँ

नाग अस्तीनोँ के अन्दर पल रहे हैँ ।
मूँग छाती पर हमारी दल रहे हैँ ।
अब उन्हीँ लोगोँ से है ख़तरा हमेँ तो ,
जो हमारे द्वार की साँकल रहे हैँ ।
प्राणवायु बाँटते थे दूसरोँ को
हम कभी इस गाँव के पीपल रहे हैँ ।
हर क़दम की ताल को पहचानते हैँ ,
वो तुम्हारे पाँव की पायल रहे हैँ ।
गोद मेँ सूरज छिपाकर भी जो बरसेँ ,
इस तरह के लोग ही बादल रहे हैँ ।
भीड़ का हिस्सा नहीँ अगुआ बने हैँ ,
थे अकेले ही अकेले चल रहे हैँ ।
सूर्य बनकर उम्र भर बाँटा उजाला ,
डूबने का वक्त है तो ढल रहे हैँ ।

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