रविवार, 6 सितंबर 2009

बड़े सुभीते हैँ

आह भरते हैँ अश्क़ पीते हैँ ।
गर्दिशो मुफ़लिसी मेँ जीते हैँ ।
क़ैद चिड़ियाघरोँ मेँ हैँ लेकिन ,
हम तो जंगल के शेर चीते हैँ ।
हर कोई कैँचियाँ चलाता है ,
जैसे उदघाटनोँ के फीते हैँ ।
मौत बेहतर है ज़िन्दगी से जहाँ ,
ऐसे हालात मेँ वो जीते हैँ ।
फ़न है , अल्फ़ाज़ हैँ , तसव्वुर है ,
फिर क्योँ अपने नसीब रीते हैँ ।
ढाँकने के लिए ग़रीबी को ,
अपने चिथड़ोँ रोज सीते हैँ ।
उनके तलवोँ को चाटना सीखो ,
इस हुनर मेँ बड़े सुभीते हैँ ।

3 टिप्‍पणियां:

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

"क़ैद चिड़ियाघरोँ मेँ हैँ लेकिन,
हम तो जंगल के शेर चीते हैँ।
उनके तलवोँ को चाटना सीखो,
इस हुनर मेँ बड़े सुभीते हैँ ।"
ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं...बहुत बहुत बधाई...

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

क़ैद चिड़ियाघरोँ मेँ हैँ लेकिन ,
हम तो जंगल के शेर चीते हैँ ।
उनके तलवोँ को चाटना सीखो ,
इस हुनर मेँ बड़े सुभीते हैँ ।
ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं...बहुत बहुत बधाई...

नीरज गोस्वामी ने कहा…

हर कोई कैँचियाँ चलाता है ,
जैसे उदघाटनोँ के फीते हैँ ।

वाह जनाब वाह...क्या बात कही है आपने...लाजवाब...
नीरज