शनिवार, 26 सितंबर 2009

वय: सन्धि के बन्धन

लगे टूटने धीरे - धीरे वय: सन्धि के बन्धन ॥
मुखर हो उठे मन के सारे दबे हुए संवेदन ॥
आँखेँ बुनने लगीँ आजकल सपने रंग रँगीले ।
और हृदय वीणा के तन्तु होने लगे हठीले ।
धड़कन - धड़कन पूछ रही है कैसे करूँ निवेदन ॥
देती है जब मन्द झकोरे शीतल सी पुरवाई ।
अलसाई कलियाँ लेती हैँ धीरे से अँगड़ाई ।
टहनी - टहनी मचल रही है करने को आलिँगन ॥
सोती हुई झील के अन्तर मेँ जागा कौतूहल ।
नन्ही सी कंकरिया कर गई कितनी गहरी हलचल ।
डूब गईँ शर्मीली लहरेँ ले कूलोँ का चुम्बन ॥
बार - बार नयनोँ के आगे आए चाँद सलोना ।
मीठा सा उलाहना देकर रूठे कोई खिलौना ।
थोड़ी सी मनुहार और फिर सौ - सौ बार समर्पण ॥

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