दिन ग़रीबी के सही हँस के गुज़र जाएँगे ।
ख़्वाब महलोँ के देखेँगे तो मर जाएँगे ।
पाँव तहज़ीब से रखना मेरे बगीचे मेँ ,
फूल नाज़ुक हैँ , तेरे डर से बिखर जाएँगे ।
हर क़दम पे हमेँ धोखा ही मिला है उनसे ,
फिर भी उम्मीद है हमको कि सुधर जाएँगे ।
निकल पड़े हैँ कड़ी धूप मेँ साया पाने ,
छाँव मिल जाएगी हमको तो ठहर जाएँगे ।
अभी निग़ाह मेँ सबकी ज़नाब ऊपर हैँ ,
मैँ हक़ीक़त जो बता दूँ तो उतर जाएँगे ।
तू लक़ीरेँ तेरे हाथोँ की नजूमी को दिखा ,
पूछ ले कब तलक़ दिन अपने सँवर जाएँगे । आपके आसपास हम तो रहेँगे हरदम ,
आपसे दूर भला और किधर जाएँगे ।
आपसे
सोमवार, 21 सितंबर 2009
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3 टिप्पणियां:
अभी निग़ाह मेँ सबकी ज़नाब ऊपर हैँ ,
मैँ हक़ीक़त जो बता दूँ तो उतर जाएँगे
बहुत खूब जनाब...वाह...
नीरज
अभी निग़ाह मेँ सबकी ज़नाब ऊपर हैँ ,
मैँ हक़ीक़त जो बता दूँ तो उतर जाएँगे ।
तू लक़ीरेँ तेरे हाथोँ की नजूमी को दिखा ,
पूछ ले कब तलक़ दिन अपने सँवर जाएँगे
बहुत खूब अच्छी रचना है बधाई
bahut sunder kavita hai
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