शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

नवगीत

कल सचमुच यदि तुम आ जाते ॥
जी भरकर हँसते बतियाते ॥
भूल कुटिलतम आघातोँ को ।
जीवन के झंझावातोँ को । सुख से जो हम दोनोँ करते ,
सुनकर प्रेम पगी बातोँ को ।
प्रकृति विहँसती और गगन के ,
चमकीले तारे मुस्काते ॥
महुआ औ टेसू फूले थे ।
मस्ती मेँ सुध - बुध भूले थे ।
सपनोँ मेँ गलबहियाँ देकर ,
हम झूले थे ,
तुम झूले थे ।
करने को अभिसार ,
रूठते यदि हमसे
तो तुम्हेँ मनाते ॥
बचकर गर्मी की दुपहर से ।
गुपचुप - गुपचुप
इधर - उधर से ।
आँख बचाकर दुनिया भर की ,
ले जाते फिर तुम्हेँ नगर से ।
दूर गाँव की अमराई मेँ ,
बैठ प्रीत का पाठ पढ़ाते ॥

2 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

सुन्दर गीत है शुभकामनायें

नीरज गोस्वामी ने कहा…

करने को अभिसार ,
रूठते यदि हमसे
तो तुम्हेँ मनाते ॥
लाजवाब...बहुत सुन्दर नव गीत है...इतने सुंदरा भाव और शब्दों का चयन किया है की क्या कहूँ...वाह...
नीरज