बुधवार, 9 सितंबर 2009

चुरा लिया

पानी , हवा , जमीन और बादल चुरा लिया ।
इंसान की वहशत ने ये जंगल चुरा लिया ।
चौपाल सूनी हो गईँ , अमराइयाँ उदास ,
किसने हमारे गाँव का पीपल चुरा लिया ।
परफ्यूम का चलन बढ़ा इत्रोँ के दिन लदे ,
महके हुए कन्नौज का सन्दल चुरा लिया ।
बिन्दी गई , कंगन गए , मेँहदी कभी कभार ,
फैशन चली तो आँख से काजल चुरा लिया ।
उतरेगी नज़र किस तरह दुर्लभ हैँ राई - नोन ,
महँगाई ने ममता भरा आँचल चुरा लिया ।
लोरी नहीँ , परियोँ की कहानी नहीँ , टी. वी. ,
गाँवोँ से इसने आल्हा औ ऊदल चुरा लिया ।

4 टिप्‍पणियां:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

चौपाल सूनी हो गईँ , अमराइयाँ उदास ,
किसने हमारे गाँव का पीपल चुरा लिया ।

बिन्दी गई , कंगन गए , मेँहदी कभी कभार ,
फैशन चली तो आँख से काजल चुरा लिया

रमेश जी ये दो शेर ही नहीं पूरी की पूरी ग़ज़ल ही लाजवाब है...शब्द नहीं हैं मेरे पास प्रशंशा के लिए...सरल सीधे शब्दों में कमाल करते हैं आप. मेरी बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें.

नीरज

Udan Tashtari ने कहा…

वाह वाह!! अद्भुत!

चौपाल सूनी हो गईँ , अमराइयाँ उदास ,
किसने हमारे गाँव का पीपल चुरा लिया....

-
हाय!! इसने हमारा दिल चुरा लिया..बहुत खूब!!

Meenu Khare ने कहा…

उतरेगी नज़र किस तरह दुर्लभ हैँ राई - नोन ,
महँगाई ने ममता भरा आँचल चुरा लिया ।
लोरी नहीँ , परियोँ की कहानी नहीँ , टी. वी. ,
गाँवोँ से इसने आल्हा औ ऊदल चुरा लिया ।

क्या बात है रमेश जी. बहुत बढिया ग़ज़ल.

अपूर्व ने कहा…

किसने हमारे गाँव का पीपल चुरा लिया ।

इससे बेहतर पंक्ति अभी तक नही पढ़ पाया ब्लॉग जगत पर..बड़ी hard-hitting गज़ल है..साधुवाद.